SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितोगाभिमान अभाब हो जानेसे अस्खलित-निर्दोष वृत्तिको धारण कर रहा है वह अप्रमत्तसंयत कहलाता है। भावार्थ-छठवें गुणस्थानकी अपेक्षा इस गुणस्थानमें संज्वलनका उदय और भी मन्द हो जाता है इसलिये यहाँ प्रमादका अभाव हो जाता है । प्रमादका अभाव हो जानेसे यह अप्रमत्तसंयत कहलाता है। इस गुणस्थानके दो भेद है..१ स्वस्थान अप्रमत्तसंयत और २ सातिशय अप्रमत्तसंयत । जो सातबसे गिरकर छठवें में आता है और फिर सातवेंमें चढ़ता है वह स्वस्थान अप्रमत्त संयत कहलाता है तथा जो श्रेणी माढ़नेके सम्मुख हो अधःकरण परिणामोंको प्राप्त करता है वह सातिशय अप्रमत्तसंयत कहलाता है। जहाँ सम-समयवती तथा भिन्नसमयवर्ती जीवोंके परिणाम समान तथा असमान दोनों प्रकारके होते हैं उन्हें अधिकरण कहते हैं। इस गुणस्थान में भी नियमसे देवायका बन्ध होता है ॥ २४ ॥ अपूर्वकरण गुण स्थानका स्वरूप अपूर्वकरणं कुर्वन्नपूर्वकरणो यतिः । शमकः क्षपकश्चैव स भवत्युपचारतः ||२५|| अर्थ-अपूर्वकरण-नये-नये परिणामोंको करनेवाला मुनि अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती कहलाता है। यह मुनि उपचारसे शमक और क्षपक दोनों प्रकारका होता है। भावार्थ-सप्तम गुणस्थानके सातिशय अप्रमत्तसंयतको जो अधःकरणरूप परिणाम प्राप्त होते थे उनमें आगामी समयवर्ती जीवों परिणाम पिछले समयवर्ती जीवोंके परिणामोंसे मिलते-जुलते भी रहते थे, पर अष्ठम गुणस्थानवर्ती जीवके विशद्धताके बढ़ जानेसे प्रत्येक समय अपूर्व-अपूर्व–नये-नये ही करण–परिणाम होते हैं । इस गुणस्थानमें आगामी समयवती जोवाक परिणाम पिछले समयवर्ती जीवोंके परिणामोंसे मिलते-जुलते नहीं है, इसलिये इसका अपूर्वकरण यह सार्थक नाम है। इस गुणस्थानमें समसमयवती जीवोंके परिणाम समान और असमान दोनों प्रकारके होते हैं तथा भिन्न समयवर्ती जीवोके परिणाम नियमसे भिन्न ही होते हैं। इस गुणस्थानसे श्रेणी प्रारम्भ हो जाती है। चारित्रमोहनीयकर्मका उपशम या क्षय करनेके लिये परिणामोंकी जो सन्तति होती है उसे श्रेणी कहते हैं । इसके दो भेद हैं--उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी ! उपशमश्रेणीको द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मांढ़ते हैं परन्तु क्षपकश्रेणीको क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही मांढ़ते हैं। उपशमश्रेणीवाले उपशमक और क्षपकश्रेणीवाले क्षपक कहलाते हैं। इसलिये उपचारसे
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy