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________________ तत्त्वार्थसार अर्थ--संसारकी सभी वस्तुएं द्रव्य और पर्यायरूप है । वस्तुकी इन दोनों रूपताको एक अंशसे ग्रहण करनेवाले द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय है। अर्थात् जब वस्तुकी द्रव्यरूपताको ग्रहण किया जाता है तब द्रव्याथिकनयका उदय होता है और जब पर्यायरूपताको ग्रहण किया जाता है तव पर्यायार्थिकनयका उदय होता है । अनुप्रवृत्ति, सामान्य और द्रव्य ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं अर्थात् सोनोगा एक ही भई होगा है। होना इन्हें विसापर करता है वह द्रव्याथिक नय है । ब्यावृत्ति, विशेष और पर्याय ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं । जो नय पर्यायको विषय करता है वह पर्यायाथिकनय कहलाता है। भावार्य-जीवद्रव्य और नारक,तिर्यञ्च, मनुष्य, देवपर्याय, पुङ्गलद्रव्य और घट-पटादि पर्याय इस तरह संसारके समस्त पदार्थ द्रव्य और पर्यायरूप अनुभव आते हैं। जब पर्याय अशंको गौणकर मुख्यरूपसे द्रव्य अंशको जाना जाता है तब द्रव्याथिकनय होता है और जब द्रव्य अंशको गौणकर मुख्यरूपसे पर्याय अंशको जाना जाता है तब पर्यायाथिकनय होता है। अनुप्रवृत्ति, सामान्य और द्रव्य इन तीनों शब्दोंका एक ही अर्थ होता है । जो ज्ञान अनुप्रवृत्ति, सामान्य या द्रव्यको जानता है वह द्रव्याथिकानय कहलाता है। इसी प्रकार व्यावृत्ति, विशेष और पर्याय ये तीनों शब्द एक अर्थक वाचक हैं जो नय पर्यायको विषय करता है वह पर्यायार्थिकनय है ।। ३८-४० 11 व्याथिकनयके भेद शुद्धाशुद्धार्थसंग्राही त्रिधा द्रव्यार्थिको नयः । नैगमसंप्रहश्चैव व्यवहारश्च संस्मृतः ।।४।। अर्थ-शुद्ध और अशुद्ध अर्थको ग्रहण करनेवाला द्रव्यापिकनय तीन प्रकारका माना गया है--१ नैगम, २ संग्रह और व्यवहार । भावार्थ-द्रव्याथिकनय न केवल शुद्ध द्रव्यको ही ग्रहण करता है किन्तु अशुद्ध द्रव्यको भी ग्रहण करता है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य सदा शुद्ध ही रहते हैं और जीव तथा पुद्गल ये दो द्रव्य शुद्ध तथा अशुद्ध दोनों प्रकारके होते हैं। कर्म-नोकर्मके सम्बन्धसे रहित जीवद्रव्यका जो मुक्त अवस्था में परिणमन है वह शुद्ध जीवद्रव्यका परिणमन है और संसारी अवस्थाम जोवका जो परिणमन है वह अशुद्ध जीवद्रव्यका परिणमम है। इसी प्रकार जीवके रागादिभावोंका निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्यमें जो कर्मरूप परिणमन हैं वह अशुद्ध पुद्गलका परिणमन है और जीवनिरपेक्ष पुदगलका जो परिणमन हैं वह शुद्ध पुद्गलका परिणमन है । अथवा पुद्गलका जो अणुरूप परिणमन है वह शुद्ध परिणमन हैं और द्वयणुक आदि स्कन्धरूप जो परिणमन है वह अशुद्ध
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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