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________________ রাখাই सम्बन्धी प्रारम्भिक भागको आधार बनाया गया है । उसमें संवरका स्वरूप तथा उसके कारणभूत गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चरित्रका वर्णन किया गया है । (७) सप्तमाधिकारमें निर्जराका वर्णन किया गया है और उसका आधार तत्त्वार्थसूत्रके नवमाध्यायके उत्तरार्धको बनाया गया है। इसमें निर्जराके भेद तथा निर्जराके कारणभूत तपोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है। (८) अष्टमाधिकारमें मोक्ष का वर्णन है तथा उसका आधार तत्वार्थसूत्रके दशमाहारको बनाया गया। इसमें सोशा लक्षण तथा उसकी प्राप्तिके क्रमका बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है। इस प्रकरणने अमृत चन्द्र स्वामी ने राजवातिकके कितने ही वातिकों को श्लोकोंका रूप देकर अपने ग्रंथका अंग बना लिया है । जैसेभावभावादन्ताभाव इति चेत्, न दृष्टत्वावन्त्यबीजवत् ता, रा. वा. पृष्ठ ६४१ आधभावान भावस्य कर्मबन्धनसन्ततेः । मन्ताभाषः प्रसज्येत सृष्टत्वादन्ययोजयत् ॥६॥ त. सा. अघि. ८ यही नहीं, राजवातिककारने 'उक्तं च' कहकर वग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः। कर्मबोजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः ।। तत्त्वाधिगमभाष्यके इस पाको उद्धृत किया है। उसे तत्वाधंसारमै ग्रन्थका ही अंग बना लिया है या फिर प्रेसकोपी बनाते समय तत्वार्थसारमें 'उक्तंच' पाठ लिखनेसे रह गया है। बन्यस्याव्यवस्था अश्वादिवदिति चेत्, न, मिथ्यादर्शनाधुच्छेवे कार्यकारणनिवृतः ॥ ४ ॥ त. रा. वा. पृष्ठ ६४२ अव्यवस्था न बन्यस्य गवादीनामिवात्मनः । कार्यकारणविचछेवान्मिथ्यात्वाविपरिक्षये ॥८॥ त. सा० अघि ८ पुनबन्धप्रसङ्गो जानतः पश्यतश्च कारुण्याविति चेत्, न, सर्वास्त्रवपरिक्षयात् ।।५॥ त० रा. वा. पृष्ठ ६४३ जानतः पश्यतश्चोध्वं जगरकारुम्मसः पुनः । तस्य वन्यप्रसङ्गो न सस्त्रियपरिक्षयात् ॥९॥ त. सा. अधिः ८
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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