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________________ १८० तत्त्वार्थसार प्रच्छना स्वाध्यायका लक्षण तत्संशयापनोदाय तन्निश्चयवलाय वा । परं प्रत्यनुयोगो यः प्रच्छनां तद्विदुर्जिनाः ॥ १८ ॥ अर्थ - शास्त्रविषयक संशयको दूर करनेके लिये, अथवा उसका निश्चय दृढ करने के लिये दूसरे से जो प्रश्न करना है उसे जिनेन्द्र भगवान् प्रच्छना नामका स्वाध्याय कहते हैं ॥ १८ ॥ आम्नाय स्वाध्यायका लक्षण आम्नायः कथ्यते घोषो विशुद्धं परिवर्तनम् । अर्थ - निर्दोष उच्चारण करते हुए पाठ करना आम्नाय नामका स्वाध्याय कहलाता है । धर्मोपदेश स्वाध्यायका लक्षण विज्ञेया कथाधर्माद्यनुष्ठानं धर्मदेशना ॥१९॥ अर्थ-धर्मकथा आदिका करना धर्मदेशना — धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय जानना चाहिये ।। १९ । अनुप्रेक्षास्वाध्यायका लक्षण साधोरधिगतार्थस्य योऽभ्यासो मनसा भवेत् । अनुप्रेक्षेति निर्दिष्टः स्वाध्यायः स जिनेशिभिः ||२०|| अर्थ---पदार्थको जाननेवाले साधुका जो मनसे अभ्यास - चिन्तन आदि होता है उसे जिनेन्द्र भगवान्ने अनुप्रेक्षा' नामका स्वाध्याय कहा है || २० ॥ प्रायश्चित तपके नौ भेद आलोचनं प्रतिक्रान्तिस्तथा तदुभयं तपः । व्युत्सर्गश्च विवेकश्च तथोपस्थापना मता ॥२१॥ परिहारस्तथाच्छेदः प्रायश्चित्तभिदा नव । अर्थ -- आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, तप, व्युत्सर्ग, विवेक, उपस्थापना, परिहार और छेद ये प्रायश्चित्त तपके नौ भेद हैं ॥ २१ ॥ आलोचनाका लक्षण आलोचनं प्रमादस्य गुरवे विनिवेदनम् ||२२|| अर्थ- गुरुके लिये अपने प्रसादका निवेदन करना आलोचना है || २२ ||
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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