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________________ तत्वापंसार है उससे यह सिद्ध होता है कि एक सर्वसाधु नामके पुज्य गुरु ये जिन्होंने अन्त में संन्यास धारण कर शुभ गति प्राप्त की थी उनके संन्यासकी विशेषता बतलाते हुए कहा है कि संन्यासके लिये जबसे उन्होंने पर्यङ्कासन बांधा तबसे न थूका, न सोया, न किसीसे बात की, न किसोसे कहा कि तुम आओ, तुम जाओ, म पारीरको खुजाया, न राविको गमन किया, न रात्रिके समय किसीको जागने दिया, न स्वयं जगाया और न झुके 1 उन्हीं सर्वसाधु गुरुके जिनयन्द्र नामफे शिष्य थे । जो निर्मल सम्यग्दृष्टि थे, सिद्धान्त के पारगामी थे तथा चारित्ररूपी अलंकारसे अलंकृत थे। उन्हीं जिमचन्द्र के शिष्य भास्करनन्दि थे। उन्होंने यह सुखबोध टीका लिखी है'। इस तरह भास्करनन्दिके गुरुका उल्लेख तो प्राप्त है परन्तु वे किस समय हुए इसका उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ। तत्वार्थसूत्रको प्रस्तावनामें उसके संपादक श्री पं० शान्तिराजजीने आशंसा प्रकट की है कि श्रवणवलगोलामें स्थित ६९ वें शिलालेख में द्वितीय माघनन्दिके बाद एक जिनचन्द्राचार्यका उल्लेख किया गया है संभवतः भास्करन्दि उन्हीं जिनचन्द्र के शिष्य है। इतिहासज्ञ विद्वान् माषनन्दी द्वितीयका काल १२५० ई. औकते हैं अत. बिनचन्द्रका समय १२७५ ई० होगा और उनके शिष्य भास्करनन्दिका समय १३०० ई. होगा। परन्तु यह एक संभावनामात्र है। जनसंदेशक शोक १९ में प्रकाशित श्री पं० मिलापचन्द्रजी कटारया केकड़ी के 'भास्करनन्दि और श्रीपालसुत्त हड्ता' शीर्षक लेखसे यह भो प्रतीत हया है कि भास्करनन्दिने अपनी सुखबोधटीकामै श्रीपालसुस्त डड्डाके संस्कृत पद्यमय पञ्चसंग्रह के अनेक पर उद्धृत किये है । यथा द्विकपोताथ कापोता नौले नीला च मध्यमा । नीलाकृष्णे , कृष्णातिकृष्णा रत्नप्रभाविषु ॥ १९८ ॥ पं० सं० इस पद्यको भास्करनन्दिने तत्वार्थ सूत्रके तृतीयाध्यायके तृतीय सूत्रको टीकामें उद्धृत किया है। इसीप्रकार चतुर्याध्यायके सूत्र २ को टीकामें निम्नाङ्कित श्लोक उद्धृत किये है १. नो निष्ठीवेन्न शेते वदति घन परं हमे हि माहीतु जातु नो कण्डूयेत गाव नजति न निशि नोट्टयेदा न दत्ते । नावष्टम्नाप्ति किञ्चद्गुणविधिरिति यो बद्धपर्ययोगः कृत्वा संन्यासमन्तै शुभगतिरभवत्सर्वसाघु. स पूण्यः ।। तस्यासीत्सुबिशुनदृष्टिविभवः सिद्धान्तपारंगतः शिष्य: श्रीजिनम्वन्द्र नामकलितश्चारित्रभूषान्धितः । शिष्यो भास्करनन्दिनामविबुषस्तस्याभवत्तत्त्ववित् । तेनाकारि सुखादिवोपविषया तत्वार्थवृत्तिः स्फुटम् ॥ -प्रशस्ति
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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