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________________ षष्ठअधिकार (संवरतच्च वर्णन ) मङ्गलाचरण अनन्तकेवलज्योतिःप्रकाशितजगत्त्रयान् । प्रणिपत्य जिनान्मृधर्ना संवरः संप्रचक्ष्यते ॥ १ ॥ अर्थ अनन्तकेवलज्ञानरूपी ज्योत्तिके द्वारा जिन्होंने तीनों लोकोंको प्रकाशित किया है ऐसे जिनेन्द्र भगवालको शिस गुमान कर सर सस्पका निरूपण किया जाता है ॥ १ ॥ संवरका लक्षण यथोक्तानां हि हेतूनामात्मनः सति सम्भवे । आस्रवस्य निरोधोयः स जिनः संवरः स्मृतः ॥ २ ॥ अर्थ – संवरके जो हेतु कहे गये हैं उनके संभव होनेपर आत्मामें जो आस्त्रव का निरोध होता है वह जिनेन्द्र भगवान के द्वारा संवर माना गया है ॥ २॥ संवरके हेतु गुप्तिः समितयो धर्मः परीषहजयस्तयः । अनुप्रेक्षाश्च चारित्रं सन्ति संवरहेतवः ।। ३ ।। अर्थ—गुप्ति, समिति, धर्म, परीषहजय, तप, अनुप्रेक्षा और चारित्र ये संवरके हेतु हैं ॥ ३ ॥ गुमिका लक्षण योगानां निग्रहः सम्यग्गुप्तिरित्यभिधीयते । मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः कायगुप्तिश्च सा विधा ।। ४ ।। अर्थ—योगोंका अच्छी तरह निग्रह करना गुप्ति कहलाता है। वह गुति मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके भेदसे तीन प्रकारको है ।। ४ ।। गुप्तिसे शीघ्र ही संघर होता है तत्र प्रवर्तमानस्य योगानां निग्रहे सति । तनिमित्तात्रवाभावात्सयो भवति संवरः ॥५॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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