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________________ पञ्चमाधिकार (वन्धतच्चवर्णन ) मङ्गलाचरण अनन्तकेवलज्योति:काशितजगत्त्रयान् । प्रणिपत्य जिनान्मूनां बन्धतत्त्वं निरूप्यते ॥ १॥ अर्थ अनन्त केवलज्ञानरूप ज्योतिके द्वारा तीनों जगत्को प्रकाशित करनेवाले जिनेन्द्र भगवानको शिरसे प्रणाम कर बन्ध तत्त्वका निरूपण किया जाता है ।। १॥ बन्धके पाँच हेतु बन्धस्य हेतवः पञ्च स्युमिथ्यात्वमसंयमः । प्रमादश्च कषायश्च योगश्चेति जिनोदिताः ॥२॥ अर्थ-मिथ्यात्व, असंयम, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्धके पाँच हेतु जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गये हैं ।। २ ।। मिथ्यात्वके पाँच भेद ऐकान्तिकं सांशयिकं विपरीतं तथैव च । आज्ञानिकं च मिथ्यात्वं तथा वैनयिकं भवेत् ॥ ३॥ अर्थ---ऐकान्तिक, सांशयिक, विपरीत, आज्ञानिक और वैनयिक ये मिथ्यात्वके पाँच भेद हैं ॥३॥ ऐकान्तिकामिथ्यात्वका लक्षण यत्राभिसन्निवेशः स्यादत्यन्तं धर्मिधर्मयोः । इदमेवेत्थमेवेति तदैकान्तिकमुच्यते ॥४॥ अर्थ-जिसमें धर्म और धर्मीक विषयमें 'यह ऐसा ही हैं। इस प्रकारका एकान्त अभिप्राय होता है वह ऐकान्तिक मिथ्यात्व कहा जाता है ॥४॥ सांशयिफमिथ्यात्वको लक्षण किं वा भवेन्न वा जैनो धर्मोऽहिंसादिलक्षणः । इति यत्र मतिद्वैधं भवेत्सांशयिक हि तत् ॥ ५ ॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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