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________________ चतुर्थाधिकार सल्लेखनावमा मर्मत अपरं च व्रतं तेषामपश्चिममिहेष्यते । अन्ते सल्लेखनादेव्याः प्रीत्या संसेवनं च यत् ॥८२॥ अर्थ-अन्तमें सल्लेखनादेवीकी जो प्रीतिपूर्वक सेवा' करता है वह भी उन बारह व्रतों से एक अन्य श्रेष्ठ व्रत माना जाता है । भावार्थ-जीवनके अन्तमें प्रीतिपूर्वक सल्लेखना धारण करना यह भी एक उत्तम श्रत है। समताभावसे कषायोंको कृश करते हुए मरण करना सल्लेखना है । इसे ही समाधिमरण या सन्यासमरण कहते हैं । कुन्दकुन्दस्वामीने इसे चार शिक्षाबतोंमें शामिल किया है । पर पीछे चलकर उमास्वामी आदि आचार्योंने इसका बारह व्रतोंके अतिरिक्त वर्णन किया है। ऐसा करनेमें इनका अभिप्राय यह रहा मालूम होता है कि मरण तो अन्तिम समयमें होता है उसका पहलेसे पालन किस प्रकार हो सकता है ? शिक्षाव्रतोंमें इसे सम्मिलित करने में कुन्दकुन्दस्वामीका यह अभिप्राय था कि गृहस्थको निरन्तर ऐसी भावना रखना चाहिये कि मैं सल्लेखना द्वारा ही मरण करूँ। जिस जीवकी भावना सल्लेखना द्वारा मरण करनेकी रहती है वही अन्तमें सल्लेखना कर सकता है। जिसका प्रतीकार न हो सके ऐसा उपसर्ग, दुर्भिक्ष, तथा बुढ़ापा प्राप्त होनेपर धर्म-रक्षाको भावनासे सल्लेखना की जाती है। सल्लेखनाको उल्लासपूर्वक धारण करना चाहिए, संक्लेशपूर्वक नहीं 1 इसके भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनीमरण और प्रायोपगमनके भेदसे तीन भेद होते हैं । जिसमें क्रम-क्रमसे या एक-साथ आहार-पानीका त्याग किया जाता है, परन्तु शरीरको टहल स्वयं भी की जा सकती है और दूसरेसे भी कराई जा सकती है उसे भक्तप्रत्याख्यान कहते हैं। जिसमें आहारपानीके त्यागके साथ शरीरकी टहल स्वयं तो की जा सकती है पर दूसरेसे नहीं कराई जाती उसे इंगिनीमरण कहते हैं । और जिसमें इतनी निःस्पृहता बढ़ जाती है कि आहारपानीके त्यागके साथ शरीरकी टहल न स्वयं की जाती है और न दूसरेसे कराई जाती है उसे प्रायोपगमन कहते हैं। ८२ ॥ अतिचारोंके वर्णनकी प्रतिज्ञा सम्यक्त्यव्रतशीलेषु तथा सन्लेखनाविधौ । अतीचाराः प्रवक्ष्यन्ते पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।। ८३॥ अर्य--अब इनके आगे सम्यक्त्व, पाँच नत, सात शील और सल्लेखनाविधिमें प्रत्येकके पांच-पाँच अतिचार क्रमसे कहे जावेंगे।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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