SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थसार अतिथेः संविभागश्च व्रतानीमानि गेहिनः । अपरायपि सप्त स्युरित्यमी द्वादशव्रताः ॥८१॥ अर्थ-ऊपर कहे हुए पाँच अणुब्रतोंके सिवाय गृहस्थके दिग्वत, देशवत, अनर्थदण्डवत, सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोगभोगपरिमाण, और अतिथिसंविभाग ये सात और भी व्रत होते हैं । इस तरह गृहस्थके पाँच अणुव्रत, तीन गुणग्नत और चार शिक्षाबत सब मिलाकर बारह व्रत होते हैं। ____ भावार्थ-जिस प्रकार खेतकी रक्षाके लिये वाड़ी होती है उसी प्रकार व्रतोंकी रक्षाकं लिये सात शील होते हैं। तीन गुणनत और चार शिक्षात्रत इन सातको शील काहते हैं। इनसे अहिंसादि व्रतोंकी रक्षा होती है। गुणवतके तीन भेद है- दिग्द्रत, २ देशव्रत और ३ अनर्थदण्डव्रत । हिंसा तथा आरम्भ आदिको कम करनेके अभिप्रायसे जीवनपर्यन्तके लिये दशों दिशाओंमें आवागमनकी सीमा निश्चित करना दिग्व्रत है। दिग्वतके भीतर समयकी मर्यादाके साथ छोटी सीमा निश्चित करना देशयत है । और मन, बचन, कायके निरर्थक व्यापारका त्याग करना अनर्थदण्डवत है। ये अणुनतोंका गुण अर्थात् उपकार करते हैं इसलिये गुणवत कहे जाते हैं। प्रात:काल, मध्याह्नकाल और सायंकाल कम-से-कम दो घड़ी तक समताभाव रखते हुए सामायिक करना सामायिक कहलाता है। प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको धारणा और पारणाके दिनके एकाशनके साथ उपवास करना प्रोषधोपवासवत है। प्रोषधका अर्थएकाशन, उपवासका अर्थ-चारों प्रकारके आहारका त्याग और प्रोषधोपवासका अर्थ-एकाशनके साथ उपवास करना है । अथवा प्रोषधका अर्थ पर्व–अष्टमी चतुर्दशी है, पर्वके दिन उपवास करना ही प्रोषधोपवास है । भोग और उपभोग में आनेवाली वस्तुओंकी संख्या निदिचत करना भोगोपभोगपरिमाण है। जो वस्तु एकबार भोगने में आती है उसे भोग कहते हैं। जैसे भोजन तथा माला आदि । और जो बार-बार भोगने में आती है उसे उपभोग कहते हैं । जैसे—वस्त्र, आभूषण आदि । इनका परिमाण यम और नियम दोनों रूपसे होता है । असेय वस्तुओंका त्याग तो यमरूप ही होता है और सेव्य वस्तुओंका त्याग यम तथा नियम दोनों रूप होता है। जीवनपर्यन्तके लिये त्याग वारना यम है और समयकी मर्यादाके साथ त्याग करना नियम है। अतिथि-योग्य पात्रके लिये चार प्रकारका दान देना अतिथिसंविभाग कहलाता है। सामायिक, प्रोषधोपबास, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग ये चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं क्योंकि इनसे मुनिव्रतके अभ्यासकी शिक्षा मिलती है । पाँच अणुन्नत तीन गुणवत और चार शिक्षाप्रतके भेदसे गृहस्थके बारड् व्रत होते हैं। इनका पालन करनेवाला अगारी, गृहस्थ या श्रावक कहलाता है ।। ८०-८१ ।।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy