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________________ चतुर्षाधिकार साम्परायिकमेतत्स्यादार्द्रचर्मस्थ रेणुवत् । सकषायस्य यत्कर्मयोगानीतं तु मूच्छति ॥ ६ ॥ ॥ ईर्यापथ तु तच्छुष्ककुडप्रक्षिप्तलोष्टवद । अकषायस्य यत्कर्म योगानीतं न मूर्च्छति ॥७॥ Lé अर्थ - जो जीव कषाय सहित हैं वे साम्परायिक कर्मका आस्रव करते हैं और जो उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानवर्ती जीव हैं वे ईर्यापथ कर्मका आसव करते हैं । यह साम्परायिक आस्रव गीले चमड़ेपर स्थित धूलिके समान है । कषाय सहित जीवके योगोंके कारण जो कर्म आते हैं वे बृद्धिको प्राप्त होते हैं अर्थात् स्थिति और अनुभाग बन्ध पड़नेके कारण वे कर्म विस्तारको प्राप्त होते हैं । और जो ईयपिथ आस्रव है यह सूखी दीवालपर फेंके हुए ढेलेके समान है । कषाय रहित जीबोंके योगोंके कारण जो कर्म आते हैं वे वृद्धिको प्राप्त नहीं होते अर्थात् स्थिति और अनुभागबन्धके अभाव में वे विस्तारको प्राप्त नहीं होते । समयमात्रमें निर्जीर्ण हो जाते हैं । भावार्थ--- साम्परायिक और ईर्ष्यापथके भेदसे आसवके दो भेद हैं । कषाय सहित जीवके आयको साम्परायिक आस्रव कहते हैं और कषाय रहित जीवके आस्रवको ईयपथ आस्रव कहते हैं । जिस प्रकार गीले चमड़ेपर धूलि जमकर बैठती है उसी प्रकार काय सहित जीवके कर्म जमकर बैठते हैं अर्थात् उनका स्थिति और अनुभाग बन्ध अधिक होता है और सूखी दीवालपर फेंका हुआ हेला जिस प्रकार दीवालका स्पर्श कर तत्काल उससे अलग हो जाता है उसी प्रकार कषाय रहित जीवके कर्म आत्मा के साथ सम्बन्ध करते ही एक समयके भीतर अलग हो जाते हैं, उनमें स्थिति और अनुभागबन्ध नहीं पड़ता । प्रारम्भसे लेकर दशम गुणस्थान तकके जीव कषाय सहित है इसलिये इनके साम्परायिक आस्रव होता है और ग्यारहवेंसे लेकर तेरहवें गुणस्थान तक्के जीब कषाय रहित हैं इसलिये उनके ईथपथ आस्रव होता है । यद्यपि चौदहवें गुणस्थानके जीव भी कषाय रहित हैं तो भी योगोंके न होनेसे उनके किसी भी कर्मका आस्त्रच नहीं होता ॥ ५–७ ॥ साम्परायिक आवका कारण चतुः कषायपञ्चाक्षैस्तथा पञ्चभिरवतैः । क्रियाभिः पञ्चविंशत्या साम्परायिकमास्त्रवेत् ||८|| अर्थ - चार कषाय, पांच इन्द्रिय, पाँच अनत और पच्चीस क्रियाओंके द्वारा यह जीव साम्परायिक आस्रव करता है ।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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