SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०९ तत्त्वार्थसार अथवा किसी एक परमाणुके अविभागप्रतिच्छेदोंमें ह्रास होकर यदि दो गुणोंको होनाधिकता हो जाती है तो नो बन्ध काटिन भाजाते हैं । परमाणु ओंका यह बन्ध अपनेसे दो अधिक गुणवालोंके साथ बतलाया है। जैसे दो गुणवालेका चार गुणवालेके साथ और तीन गुणवालेका पांच गुणवालेके साथ बन्ध होता है। यह बन्ध स्निग्ध-स्निग्धका तथा रूक्ष-रूक्षका और स्निग्ध-रूक्षका भी होता है । बन्धके लिये सदश जातीय ही हो ऐसा नियम नहीं है। किन्तु गुणोंकी अपेक्षा दो का अन्तर होना आवश्यक है। दोका अन्तर होनेपर भी एकगुणवाले और तीन गुणवाले परमाणुओंका वन्ध नहीं होगा, क्योंकि उनमें एकगुणवाला परमाणु बन्धकी योग्यतासे रहित होगया है। बन्ध हो चुकनेपर अधिक गुणवाला परमाणु हीन गुणवाले परमाणुको अपनेरूप परिणमा लेता है। जैसे कि गीला गुड़ अपने साथ मिली हुई धूलिको अपनेरूप परिणमा लेता है ।। ७३-७५ 11 पुद्गलको बन्धपर्यायें अनन्त हैं। द्वथणुकाद्याः किलानन्ताः पुद्गलानामनेकधा । सन्त्यचित्तमहास्कन्धपर्यन्ता बन्धपर्ययाः ॥७६॥ अथ-इस प्रकार द्वचणुकको आदि लेकर जड़ महास्कन्ध पर्यन्त पुद्गलोंको अनेक प्रकारकी अनन्त बन्ध-पर्याय हैं ॥ ७६ ।। अजीव तत्त्वके श्रद्धानाविका फल इतीहाजीवतत्वं यः श्रद्धत्ते वेन्युपेक्षते । शेषतः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ॥७७॥ अर्थ-इस प्रकार इस लोकमें जो छह अन्य तत्त्वोंके साथ अजीव तत्त्वकी श्रद्धा करता है, उसे जानता है और उसकी उपेक्षा करता है अर्थात् उसकी इष्टानिष्ट परिणतिमें राग-द्वेष नहीं करता है वह निर्वाणको प्राप्त होता है ।। ७७॥ इस प्रकार श्रीअमृतचन्द्राचार्यद्वारा विरचित तत्त्वार्थसारमें अजीवतत्त्वका वर्णन करनेवाला तोसरा अधिकार पूर्ण हुआ ।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy