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________________ तत्वार्थसार अर्थ - उत्कर, चूर्णिका, चूर्णं, खण्ड, अणुचटन और प्रतरके भेदसे महर्षियोंने भेदके छह भेद कहे हैं | भावार्थं – करोत आदिके द्वारा लकड़ी आदिके चीरनेपर जो बुरादा निकलता है वह उत्कर कहलाता है । उड़द तथा मूंग आदिको जो चुनी है उसे चूर्णिका कहते हैं । जो तथा गेहू आदिका जो माटा है उसे चूणं कहते हैं । घट आदिके टुकड़ोंको खण्ड कहते हैं । तपाये हुए लोहेपर घन पटकनेपर जो अग्नि कण निकलते हैं उन्हें अणुचटन कहते हैं । और मेघपटल आदिका विखरना प्रतर कहलाता है ॥ ७२ ॥ किन परमाणुओं का परस्परमें बन्त्र होता है ? विसदृक्षाः सदृक्षा वा ये जघन्यगुणा न हि । प्रयान्ति स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धं ते परमाणवः ॥७३॥ संयुक्ता ये खलु स्वस्माद् द्वयाधिकगुणैर्गुणैः । बन्धः स्यात्परमाणूनां तैरेव परमाणुभिः ||७४ ॥ वन्धेऽधिकगुणो यः स्यात्सोऽन्यस्य परिणामकः । रेणोरधिकमाधुर्यो दृष्टः क्लिन्नगुडो यथा ॥ ७५ ॥ अर्थ — जो परमाणु तुल्यजातीय हों, चाहे अतुल्यजातीय, किन्तु जघन्य गुणवाले नहीं हैं वे स्निग्ध और रुक्षता के कारण बन्धको प्राप्त होते हैं। जो परमाणु अपनेसे दो अधिक गुणोंसे संयुक्त है उन्हीं परमाणुओंके साथ परमाणुओंका बन्ध + होता है । बन्ध होनेपर जो अधिक गुणवाला परमाणु है वह होनगुणवाले परमाणु को अपने रूप परिणमा लेता है । जैसे अधिक मिठाससे युक्त गीला गुड़ धूलिको अपने रूप परिणमाता हुआ देखा गया है । भावार्थ --- परमाणुओं का जो परस्पर बन्ध होता है उसमें उनका स्निग्धता और रूक्षता गुण कारण पड़ता है। परमाणुमें जो स्निग्ध और रूक्षगुण है उसके अनन्त तक अविभाग प्रतिक्छेद या शक्तिके अंश होते हैं । उन शक्तिके अंशोंमें हानि-वृद्धिका क्रम चलता रहता है। हानि होते-होते जब एक ही शक्तिका अंश रह जाता है तब वह परमाणु जघन्यगुणवाला परमाणु कहलाने लगता है । ऐसे परमाणुका दूसरे परमाणुके साथ बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार जिन दो परमाणुओं में अविभाग प्रतिच्छेद समान संख्याको लिये हुए हैं उनका भी बन्ध नहीं होता | वृद्धिका क्रम चलने पर जब जघन्यगुणवाले परमाणु के अविभाग प्रतिच्छेदों में पुनः वृद्धि हो जाती है तब वह फिर बन्ध कोटिमें आ जाता है । इसी प्रकार जिन दो परमाणुओं में अविभागप्रतिच्छेदोंकी समानता के कारण बन्ध नहीं हो रहा था उनमें किसी एक परमाणुके अविभागप्रतिच्छेदोंमें वृद्धि होकर १०८
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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