SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थसार अपेधिकरणे द्रव्यं महीयो नावतिष्ठते । इदं न क्षमते युक्ति दुःशिक्षितकृतं वचः ॥२८॥ अन्पक्षेत्रे स्थितिर्दृष्टा प्रचयस्य विशेषतः । पुद्गलानां बहूनां हि करीपपटलादिषु ॥२९॥ अर्थ-द्रव्योंका अवगाह लोकाकाशमें है, बाहर नहीं है। इसीसे आकाशमें लोक और अलोकका विभाग होता है। जितने आकाशमें सब द्रव्योंका अवगाह है उतना आकाश लोक कहलाता है और शेष अलोक कहलाता है। महर्षि, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायका अवगाह तिलोंमें तैलके समान समस्त लोकाकाशमें कहते हैं। प्रदीपके समान प्रदेशोंमें संकोच और विस्तार होनेके कारण जीव, लोकके असंख्येय भागको आदि लेकर समस्त लोकमें रहता है। पुद्गल द्रव्य, लोकाकाशके एक प्रदेशसे लेकर समस्त लोकाकाशमें स्थित हैं ऐसा सर्वज्ञ भगवानका कथन है। दूसरे प्रदेशोंके लिये स्थान देनेकी सामर्थ्य होनेसे सूक्ष्म परिणमन करनेवाले बहुत पुद्गल लोकाकाशके एक प्रदेशमें रह जाते हैं। एक घरमें अनेक दीपकोंके प्रकाशकी स्थिति देखी जाती है इसलिये अवगाहन करनेवाले द्रव्योंका क्षेत्र जुदा-जुदा नहीं होता और न उन द्रव्योंमें एकरूपता आती है। "छोटे अधिकरणमें बहुत बड़ा द्रव्य नहीं रह सकता" ऐसा अज्ञानी जनोंका कहना युक्तिको प्राप्त नहीं है क्योंकि छोटे क्षेत्रमें भी सप्निवेशको विशेषतासे बहुतसे पुद्गलोंकी स्थिति देखी जाती है | जैसे गोबरके उपला आदिमें घूमके बहुतसे प्रदेशोंकी स्थिति देखी जाती है ॥ २२-२९ ॥ द्रव्योंके उपकारका वर्णन धर्मस्य गतिस्त्र स्थादधर्मस्य स्थितिभवेत् । उपकारोऽवगाहस्तु नभसः परिकीर्तितः ॥३०॥ पुद्गलानां शरीरं वाक्प्राणापानौ तथा मनः। उपकारः सुखं दुःखं जीवितं मरणं तथा ॥३१।। परस्परस्य जीवानामुपकारो निगद्यते । उपकारस्तु कालस्य वर्तना परिकीर्तिता ।।३।। अर्थ-इन द्रव्योंमें धर्मद्रव्यका उपकार गति है, अधर्मद्रव्यका उपकार स्थिति है, आकाशद्रव्यका उपकार अवमाह-स्थान देना है, पुद्गल द्रव्यका उपकार शरीर, वचन, श्वासोच्छ्वास, मन, सुख, दुःख, जीवन तथा मरण है,
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy