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________________ द्वितीयाधिकार उक्त पृथिवियोंमें बिलोंकी संख्या विशन्नरकलक्षाणि भवन्त्युपरिक्षिती । अधः पञ्चकृतिस्तस्यास्ततोऽधो दशपश्च च ।।१८२।। ततोऽधो दशलक्षाणि त्रीणि लक्षाण्यवस्ततः । पञ्चोनं लक्षमेकं तु ततोऽधः पञ्च तान्यतः ॥१८३॥ अर्थ सबसे ऊपरको भूमिमें तीस लाख, उससे नीचेकी भूमिमे पच्चीस लाख, उससे नीचेकी भूमिमें पन्द्रह लाख, उससे नीचेकी भूमिमें दश लाख, उससे नीचेकी भूमिमें तीन लाख, उससे नीचेकी भूमिमें पांच कम एक लाख और उससे नीचेकी भूमिमें सिर्फ पांच विल हैं। ये विल नरक कहलाते हैं ।। १८२-१८३॥ __नरकोंके वुःखोंका वर्णन परिणामवपुर्लेश्यावेदनाविक्रियादिभिः । अत्यन्तमशुभैर्जीवा भवन्त्येतेषु नारकाः ।।१८४॥ अन्योन्योदीरितासह्य दुःखमाजो भवन्ति ते । संक्लिष्टासुरनिर्वृत्त दुःखाश्चोद्धर्वक्षितित्रये ॥१८५॥ पाकान्नरकगत्यास्ते तथा च नरकायुपः । भुञ्जते दुःकृतं घोरं चिरं सप्ततितिस्थिताः ॥१८६॥ अर्थ-इन नरकोंमें नारकी जीव, अत्यन्त अशुभ परिणाम, शरीर, लेश्या, वेदना और विक्रिया आदिसे युक्त रहते हैं। परस्परमें दिये हुए असह्य दुःखको भोगते हैं। ऊपरकी तीन पथिवियोंमें संक्लेश परिणामोंके घारक असुरकुमारके देव उन्हें दुःखी करते हैं। इस तरह सातों भूमियोंमें रहनेवाले नारकी जोव नरकगति उदयसे नरकायु पर्यन्त चिरकाल तक घोर पापका फल भोगते हैं। भावार्थ-स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और गन्दको परिणाम कहते हैं। नरकोंके स्पादिक अत्यन्त भयावह हैं । वहाँको भूमिका स्पर्श होते हो उतना दुःस्व होता है जितना कि हजार बिच्छुओंके एक साथ काटनेपर भी नहीं होता | यही दशा वहाँके रस आदिको है। नरकों में कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अशुभ लेल्याएँ ही होती हैं । पहली और दूसरी भूमिमें कपोत लेश्या है, तीसरी भूमिम अपरके पटलोंमें कापोत लेश्या और नीचेके पटलोंमें नील लक्ष्या है। चौथी भूमिमें नील लेश्या है, पाँचवी भूमिमें ऊपरके पटलोंमें नील लेण्या है और
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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