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________________ ७१ वस्वार्थसार . अर्थ-आकाशके बीचमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, तथा कालाणुओंसे व्याप्त और पुद्गलद्रव्यसे युक्त लोक है। यह लोक ही जीवोंका क्षेत्र–आधार है। भावार्थ-सब ओरसे अनन्त अलोकाकाशके ठीक बीचमें लोक है। यह लोक छहों द्रव्यसे व्याप्त है। यही लोक जीवोंका क्षेत्र अर्थात् आधार कहा गया है। लोकके भेद और आकार अघो वेत्रासनाकारो मध्येऽसौ झल्लरीसमः । ऊवं मृदङ्गसंस्थानो लोकः सर्वज्ञवर्णितः ।।१७७॥ अर्थ-सर्वज्ञदेवके द्वारा कहा हुआ यह लोक, अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकके भेदसे तीन प्रकारका है । यह लोक नीचे वेत्रासनके आकारका है, मध्यमें झालरके समान है और ऊपर भृदङ्गके सदृश है ।। १७७ ।। लोकका विभाग सर्वसामान्यतो लोकस्तिरश्चां क्षेत्रमिष्यते । श्वाभ्रमानुशदेवानामथातस्तद्विभज्यते ॥१७॥ अर्थ-सर्वसामान्यरूपसे यह लोक तिर्यञ्चोंका क्षेत्र माना जाता है। अब नरक, मनुष्य और देवोंके क्षेत्रका विभाग किया जाता है ।। १७८ ।। ____ अधोलोकका वर्णन अधो भागे हि लोकस्य सन्ति रत्नप्रभादयः । धनाम्बुपवनाकाशे प्रतिष्ठाः सप्त भूमयः ॥१७९॥ रत्नप्रभादिमा भूमिस्ततोऽधः शर्कराप्रभा । स्याद्वालुकाप्रभातोऽस्धततः पङ्कप्रभा मता ॥१८॥ ततो धूमप्रभाधस्तात्ततोऽधस्तात्तमःप्रभा । तमस्तमःप्रभातोऽधो भुवामित्थं व्यवस्थितिः ॥१८॥ अर्थ-लोकके अधोभागमें रत्नप्रभा आदि सात भूमियाँ हैं जो घनोदधिवातवलय, घनवातवलय, तनुबातवलय और आकाशके आधार हैं। उन भूमियों में रत्नप्रभा पहली भूमि है, उसके नीचे शर्कराप्रभा हैं, उसके नीचे बालुकाप्रभा है; उसके नीचे पप्रभा है, उसके नोचे धमप्रभा है, उसके नीचे तमःप्रभा है, और उसके नीचे तमस्तमःप्रभा है। इस प्रकार सात भूमियोंकी स्थिति है॥ १६९-१८१॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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