SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना शैली जनसाधारणको सरल मालूम हुई जिससे उसका प्रचार बड़ा और उत्तरदती आषार्योंने उसे खूब प्रचारित किया। ___ कुन्दकुन्दस्वामीक बार भी मास्यामः नमः न पापिलाना इत। उन्होंने कुन्द-कुन्दस्वामीकी शैलीको भी परिष्कृत कर उसे और भी सरल बनानेका प्रयास किया। उन्होंने विचार किया कि पुण्य और पाप ये दोनों पदार्थ आघबके हो विशेषरूप है अत: उनका पृथक्से वर्णन करना आवश्यक नहीं है। जीव और अजीव ये दोनों पदार्थ सबके अनुभवमें आ रहे हैं। इनका सम्बन्ध जिन कारणोंसे होता है वे कारण आस्रव है। बालकके बाद जीव और अजीबको बद्धदशाका वर्णन करने के लिये उन्होंने बचतत्वको स्वीकृत किया । आम्रव और वन्ध तत्त्वस जोवको संसारी दशा होती है पर यह जोक सरे मोक्षकी प्राप्तिके लिये पुरुषार्थ कर रहा है इसलिये आस्रवके विरोषो संवर तत्वका निरूपण किया। नये अजीवका सम्बन्ध रुक जानेपर भी पूर्षयक्ष अजीवका संबम्घ जब तक नहीं छूटता तब तक मोक्षको प्राप्ति दुर्लभ है अतः संबरके बाद निर्जरातत्वको स्वीकृत किया और संदरपूर्वक निर्जरा होते-होते जब जोव और अजीवका सम्बन्ध बिलकुल छूट जाता है तब मोक्षको प्राप्ति होती है अतः साध्यरूपमें यह प्रयोजनभूत है। इस तरह नौ पदार्थोंके स्थानपर उन्होंने सात तत्वोंको स्थान दिया और कुन्दकुन्दस्वामी के द्वारा अंगीकृत क्रममें भी परिवर्तन कर दिया। उमास्वामीको यह शंलो जनसाधारणको अत्यधिक रुचिकर हुई । उस समय भारत वर्षमें सूत्ररचनाका प्रवाह चल रहा था। न्याय, साहित्य और व्याकरणादि समस्त विषयोंपर अनेक सूत्र ग्रन्योंकी रचना हो रहो थी और वह भी संस्कृतभाषामें । इसलिये उमास्वामीने भो संस्कृत भाषामें सूत्ररचना की। इसके पूर्वका जिनागम प्राकृतभाषामें निबछु मिलता है । परन्तु उमास्वामीने संस्कृतभाषामें सर्वप्रथम अन्य रचनाकर भाषाविषयक आग्रहको छोड़ दिया और जनकल्याणकी भावनासे जिस समय जो भाषा अधिक जनग्राह्य हो उसी भाषामें लिखना अच्छा समझा 1 उमास्वामीकी यह रचना तत्त्वार्थसूत्रके नामसे प्रसिद्ध है। उत्तरवर्ती प्रन्यकारोंने अपने-अपने ग्रन्थों में तत्त्वार्थ सूत्रके नामसे ही इसका उल्लेख किया है। पोछे चलकर इसका 'मोक्षशास्त्र' नाम भी प्रचलित हो गया, क्योंकि इसमें मोचमार्गका निरूपण किया गया है। यह 'सत्त्वार्यसूत्र' इतना लोकप्रिय ग्रन्थ सिद्ध हुआ कि इसके ऊपर अनेक आचार्योने वृत्ति, वार्तिक तथा भाष्यरूप टीकाएं लिखों। जैसे समन्तभद्रस्वामोने गन्धहस्तिमहाभाष्य, पूज्यपादस्वामीने सर्वार्थसिद्धि, अकलंकस्वामीने तत्वार्थराजवार्तिक और विद्यानन्दस्वामीने तत्त्वार्यश्लोकवार्तिकभाष्य । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी इसका बहुत आदर है तथा अनेक टीकाएँ इसपर लिखी गई है। वाचक उमास्वामीका तत्त्वाधिगमभाष्य उनके यहां इसकी प्राचीन टीका मानी जाती है। इसके बाद सिद्धसेनगणो,
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy