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________________ ७४ वस्वार्मसार हैं । चक्रवतियोंमें कोई नरक जाते हैं, कोई देव होते हैं और कोई मोक्ष जाते हैं। बलभद्रों में कोई स्वर्ग जाते हैं और कोई मोक्ष जाते हैं। परन्तु नारायण और प्रतिनारायण नियमसे नरक ही जाते हैं ।। १५३-१६१|| देवों में कौन उत्पन्न होते हैं ? ये मिथ्यादृष्टयो जीवाः संजिनीऽसंजिनोऽधया । व्यन्तरास्ते प्रजायन्ते तथा भवनवासिनः ।।१६२|| संख्यातीतायुषो मास्तिर्पश्चाप्यसदृशः । उत्कृष्टास्तापसाश्चैव यान्ति ज्योतिष्कदेवताम् ।।१६३॥ ब्रह्मलोके प्रजायन्ते परिव्राजः प्रकर्षतः । आजीवास्तु सहस्रारं प्रकण प्रयान्ति हि ॥१६४॥ उत्पबन्ते सहस्रारे तिर्यञ्चो व्रतसंयुताः । अत्रैव हि प्रजायन्ते सम्यक्त्वाराधका नराः ॥१६५|| न विद्यते परं यस्मादुपपादोऽन्यलिङ्गिनाम् । निर्ग्रन्थश्रावका ये ते जायन्ते यावदच्युतम् ॥१६६।। धृत्वा निग्रन्थलिङ्ग ये प्रकृष्टं कुर्वते तपः । अन्त्य ग्रेवेयकं यावदभक्ष्याः खलु यान्ति ते॥१६७|| यावत्सर्वार्थसिद्धि तु निर्ग्रन्था हि ततः परम् । उत्पद्यन्ते तयोयुक्ता रत्नत्रयपवित्रिताः ॥१६८॥ अर्थ-जो मिथ्यादृष्टि जीव संज्ञी अथवा असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय हैं, वे व्यन्तर तथा भवनवासी होते हैं। मिथ्यादृष्टि भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यञ्च तथा उत्कृष्ट तापस ये ज्योतिष्क देवोंमें उत्पत्तिको प्राप्त होते हैं। परिव्राजक अधिकसे अधिक ब्रह्मलोक अर्थात् पांचवें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं। आजीवक अधिकसे अधिक सहस्रार नामक बारहवें स्वर्ग तक जाते हैं। प्रती तिर्यञ्च और अविरत सम्यग्दृष्टि भी यहीं तक उत्पन्न होते हैं। इसके आगे अन्य लिङ्गके धारकोंको उत्पत्ति नहीं है। जो निष्परिग्रह श्रावक हैं वे अच्युत स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं। जो अभव्य निर्ग्रन्थलिङ्ग अर्थात् दिगम्बर मुनिका वेप धारणकर उत्कृष्ट तप करते हैं वे अन्तिम अवेयक तक जाते हैं। और जो रत्नत्रयसे पवित्र निर्ग्रन्थ तपस्वी हैं वे सर्वार्थसिद्धि तक उत्पन्न होते हैं ।। १६२-१६८ ।।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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