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________________ ६४ तत्त्वार्थसार ___ अर्थ-उक्त तीनों प्रकारके जन्मोंकी सचित्त, अचित्त, सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, विवृत, संवृत और विवृतसंवृत ये नौ योनियां कही गई हैं। जिनेन्द्र भगवान्ने नारकी और देवोंकी अचित्त योनि कही है। गर्भजन्मवालोंकी सचित्ताचित्त धोनि तथा शेष जीवों की तीनों प्रकारकी अर्थात किसीकी सचित्त, किसीकी अचित्त और किसीकी सचित्ताचित्त योनि बतलाई है । देव-नारकियोंमें किन्हीं की शीत तथा किन्हीं की उष्ण योनि, अग्निकायिक जीवोंको उष्ण योनि और शेष जीवोंकी तीनों प्रकारको योनियां हैं। नारकी, एकेन्द्रिय और देवों की संवृत, विकलत्रयोंकी विवृत तथा गर्भजन्मवालोंकी मिश्र-विवृतसंवृत योनि होती है ।। १०५-१०९ ॥ चौरासीलाख योनियोंका विवरण 'नित्येतरनिगोदानां भूभ्यम्भोवाततेजसाम् । सप्त सप्त भवन्त्येषां लक्षाणि दश शाखिनाम् ।।११०॥ षट् तथा विकलाक्षाणां मनुष्याणां चतुर्दश । तिर्यग्नारकदेवानामेकैकस्य चतुष्टयम् । एवं परमाधिः स्वाल्लक्षाणां जीवयोनयः ।।१११॥ (षट्पदम् ) अर्थ-नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथिबीकायिक, जलकायिक वायुकायिक और अग्निकायिक इन छहकी सात-सात लाख, वनस्पतिकायिककी दश लाख, विकलत्रयोंकी छह लाज, मनुष्योंकी चौदह लाख, तिर्यञ्च, नारकी और देवोंमें प्रत्येककी चार-चार लाख "इस तरह सब मिलाकर चौरासी लाख जोवयोनियां होती हैं ।। ११०-१११ ॥ कुलकोटियोंका विवरण द्वाविंशतिस्तथा सप्त त्रीणि सप्त यथाक्रमम् । कोटी लक्षाणि भूभ्यम्भस्तेजोऽनिल शरीरिणाम् ||११२।। वनस्पतिशरीराणां वान्यष्टाविंशतिः स्मृताः । स्युिित्रचतुरक्षाणां सप्लाष्ट नव च क्रमात् ॥११३।। १ णिच्चिदरघासत्त य तरुदस विलिदिएसु छच्चेव । सुरणिरयतिरियचउरो चोदस मणुएसु सदसहस्सा ।।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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