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________________ ५० तत्त्वार्थसार उससे सम्बद्ध नहीं रहता । परन्तु स्पर्शन, रसना और प्राण ये तीन इन्द्रियाँ प्राप्यकारी होनेके कारण अपनेसे टकराये हुए तथा टकराकर सम्बद्ध रहनेवाले स्पर्श, रस और गन्धको ग्रहण करती हैं। यह एक मान्यता है । दूसरी मान्यता यह है कि श्रोत्र स्पृष्ट शब्दको सुनता है और अस्पृष्ट शब्दको भी सुनता है । नेत्र अस्पृष्ट रूपको ही देखता है 1 तथा घ्राण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियाँ क्रमसे स्पृष्ट और अस्पृष्ट गन्ध, रस और स्पर्शको जानती हैं ।। ४९ ।। हत यवनालमसूरातिमुक्तन्द्रर्द्धसमाः श्रोत्राक्षिघ्राणजिह्वाः स्युः स्पर्शनं नैकसंस्थिति || ५० ॥ क्रमात् । अर्थ – कर्ण इन्द्रिय जौकी नली के समान, चक्षु इन्द्रिय मसूरके समान, घ्राणइन्द्रिय अतिमुक्तक तिलके फूलके समान, जिह्वा इन्द्रिय अर्ध चन्द्रके समान और स्पर्शन इन्द्रिय अनेक आकारवाली है ।। ५० ।। इन्द्रियोंके स्वामी भवत्येकमेकैकमभिवर्धयेत् । स्थावराणां शम्बूक कुन्धुमधुपमर्त्यादीनां ततः क्रमात् ॥ ५१ ॥ अर्थ-स्थावर जीवोंके एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है फिर शाम्बूकक्षुद्र शङ्ख, कुन्थुकानखजूरा, भ्रमर और मनुष्यादिकके क्रमसे एक-एक इन्द्रिय अधिक होती जाती है ॥ ५१ ॥ एकेन्द्रिय अथवा स्थावरोंके नाम स्थावराः स्युः पृथिव्यापस्तेजो वायुर्वनस्पतिः । स्वैः स्वैर्भेदैः समा ह्येते सर्व एकेन्द्रियाः स्मृताः || ५२॥ अर्थ - पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच स्थावर हैं तथा अपने-अपने भेदोंसे सहित हैं । ये सभी स्थावर एकेन्द्रिय माने गये हैं ।। ५२ ।। होन्द्रिय जीवोंके नाम शम्बूकः शुक्की वा गण्डूपदकपर्दकाः । कुक्षिक्रम्यादयश्चैते द्वीन्द्रियाः प्राणिनो मताः ॥ ५३ ॥ 1 १ पुहुं सुणेविस अपुष्टुं चैव परसदे रूअं गंध रसं च फासं पुटुमटुं वियाणादि ॥' - सर्वार्थसिद्धि ( भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण }
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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