SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमोऽध्यायः [ २१ सद्भावभेदावेधा । आकारवती सद्भावस्थापना। अनाकाराऽसद्भावस्थापना। भविष्यत्पर्यायाभिमुखमतीततत्पर्यायं च वस्तु द्रव्यम् । तद्विविधमागमद्रव्यं नो आगमद्रव्यं चेति । तत्र जीवप्राभृतज्ञोऽनुपयुक्तश्रुतविकल्पाधिरूढः पुरुष आगमजीवद्रव्यम् । नो आगमद्रव्यं तु त्रिविधं-जीवप्राभृतज्ञशरीरं नो आगमद्रव्यं भावि नो आगमद्रव्यं, तद्वयतिरिक्त नो आगमद्रव्यं चेति । प्रथमं त्रिकालवृत्तिभेदात्त्रिविधम् । शरीरस्य नो आगमद्रव्यत्वं चानुपयुक्तागमजीवद्रव्यसम्बन्धात्तबहिर्भूतत्वाच्च बोद्धव्यम् । अनागतस्वपरिणामयोग्यं वस्तु भावि नो आगमद्रव्यम् । तत एव तन्मुख्यमितरत्सर्वमुपचरितमिति । कृत नाम वाली वस्तु की प्रतिकृति स्थापित करना स्थापना निक्षेप है। सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना ऐसे इसके दो भेद हैं, साकार स्थापना को सद्भाव स्थापना कहते हैं और अनाकार स्थापना को असद्भाव स्थापना कहते हैं । विशेषार्थ-नाम निक्षेप में किसी व्यक्ति या वस्तु का नाम जाति आदि की अपेक्षा किये बिना ही रखा जाता है जैसे देवदत्त, जिन पालित इत्यादि । लोक व्यवहार में जाति द्रव्य आदि के अपेक्षा भी नामकरण देखा जाता है जैसे-गौ, मनुष्य इत्यादि नाम जाति विषयक हैं। दण्डी, छत्री आदि दो द्रब्य के संयोगरूप द्रव्य विषयक नाम हैं । कृष्ण, श्वेत गौर इत्यादि गुण विषयक नाम हैं । गायक पूजक इत्यादि क्रिया निमित्तक नाम हैं, ऐसे नाम नाम निक्षेप से पृथक रूप हैं । 'वह यह है' इसप्रकार स्थापना करने को स्थापना निक्षेप कहते हैं इसके सद्भाव और असद्भावरूप दो भेद हैं । लेप द्वारा निर्मित पदार्थ में वह यह है ऐसी कल्पना होती है वह लेप्य कर्म स्थापना है । जैसे लेप चढ़ाई हुई प्रतिमा को कहना कि यह भगवान हैं । काष्ठ द्वारा निर्मित वस्तु में स्थापना करना काष्ठ कर्म स्थापना है जैसे लकड़ी के खिलौने को यह घोड़ा है इत्यादि कहना । कागज या दीवाल आदि पर चित्र बनाकर वह यह है ऐसा कहना चित्र कर्म है। फोटो को कहना कि यह भगवान महावीर हैं इत्यादि यह भी चित्र कर्म स्थापना है । जिस वस्तु की स्थापना की जा रही है उसके सहश यदि आकार है तो उसे सद्भाव स्थापना या तदाकार स्थापना कहते हैं। जैसे:-वीतराग भगवान आदिनाथ की वीतरागता को झलकाने वाला पाषाण आदि से निर्मित जिनबिम्ब । उक्त वस्तु के सदृश आकार नहीं हो-उसमें उसकी कल्पना करना असद्भाव या अतदाकार स्थापना है, जैसे-सतरंज के गोटे हाथी आदि के आकार रूप नहीं होने पर भी उन्हें हाथी आदि रूप कहा जाता है। इसप्रकार नाम और स्थापना
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy