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________________ ५५४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥ सकलकर्मणां विशेषेणात्यन्तिकमोक्षणमात्मनः कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षः। स एव मोक्षो नाभावमात्रमचैतन्यमकिञ्चित्करम् । चैतन्यं वा स्वरूपलाभस्यैकस्वातन्त्रयलक्षणस्य मोक्षत्वेन प्रसिद्धेः । पुरुषस्वरूपस्य चानन्तज्ञानादितया प्रमाणगोचरत्वान्यथानुपपत्तेः । कृत्स्नकर्मविप्रमोक्ष इति वचनसामर्थ्यादेकदेशकर्मसंक्षयो निर्जरा लक्ष्यते। ततस्तल्लक्षणसूत्रं न पृथक्कृतम् । स चेदृशो मोक्षः सति संवरे बन्धस्य हेत्वभावादनागतस्य सञ्चितस्य च निर्जरणाद्भवतीति बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यामिति हेतुनिर्देश उपपद्यते । तदन्यतमापाये तदघटनादातुरदोषबन्धविप्रमोक्षवदिति सुनिश्चितं नः । केषां च विप्रमोक्षो मोक्ष इत्याह सूत्रार्थ-बन्ध के हेतुओं का अभाव होने से तथा निर्जरा हो जाने से सम्पूर्ण कर्मों से पृथक् होना-छूट जाना मोक्ष है। आत्मा से सकल कर्मों का विशेष रूप से छट जाना कृत्स्न कर्म विप्रमोक्ष कहलाता है, वही मोक्ष है, अभाव मात्रको मोक्ष नहीं कहते हैं। चैतन्य का अभाव होना रूप मोक्ष तो अकिञ्चित् कर है । एक स्वातन्त्र्य लक्षण वाला जो स्वरूप लाभ है वह चैतन्य ही मोक्षपने से प्रसिद्ध है अर्थात् चैतन्य आत्मा के अपना निजी स्वरूप प्राप्त होना, पूर्णरूप से आत्मा स्वतन्त्र हो जाना मोक्ष है । आत्मा का स्वरूप अनन्त ज्ञानादि रूप है यह बात तो प्रमाण से सिद्ध है । (आत्मा अनन्त ज्ञानादि युक्त है इस बात को न्याय ग्रन्थों में सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण में भली प्रकार से अनुमान प्रमाण द्वारा सिद्ध किया है) सम्पूर्ण कर्मों का विप्रमोक्ष (कर्मों का पृथक् ) होना मोक्ष है। ‘कृत्स्न कर्मविप्रमोक्षो' इस पद की सामर्थ्य से कर्मों का एक देश क्षय होना निर्जरा है ऐसा जाना जाता है । इसीलिये निर्जरा का प्रतिपादन करने वाला पृथक् सूत्र नहीं रचा है। इस प्रकार का लक्षण वाला मोक्ष संवर होने पर तथा आगामी बन्ध हेतु का अभाव होने से एवं पूर्व सञ्चित कर्मों की निर्जरा होने पर होता है, अतः 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम्' इस प्रकार सूत्र में पञ्चमी विभक्तिरूप हेतु निर्देश किया है। ऊपर कहे हुए बन्ध हेतु का अभाव आदि कारणों में से एक भी कारण नहीं होवे तो मोक्ष नहीं होता ऐसा नियम है, जैसे-रोगी के वात पित्तादि जो दोष हैं उनमें जो नये दोष उत्पन्न होते हैं उनके कारणों का पहले अभाव करते हैं, फिर पुराने दोष को नष्ट करते हैं तब रोग से मुक्ति होती है, वैसे ही कर्मों के विषय में समझना। नवीन कर्म बन्ध के कारणों का अभाव और
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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