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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
व्याख्यानात्सविचारं तदिति संप्रतिपत्तेः । उत्तरयोरपि शुक्लध्यानयोरन्वर्थसंज्ञत्वं तत एवावसीयते । तत्र ध्याता तत्त्वार्थज्ञः कृतगुप्तचादिपरिकर्माऽऽविर्भूतवितर्कसामर्थ्यः पृथक्त्वेनार्थव्यञ्जनयोगसंक्रमणात्संयतमना मोहप्रकृतीरुपशमयन् क्षपयन्वा ध्येये द्रव्यपरमाणौ भावपरमाणौ वा पृथक्त्ववितर्कविचारं ध्यानमारभते । ततः स एव मोहनीयं क्षपयितुमनाः समूलमनन्तगुण विशुद्धियोगविशेषमाश्रित्य ज्ञानावरणसहभूतानेकप्रकृतिबन्धं निरुणद्धि | स्थितिबन्धं च ह्रासयति क्षपयति च । श्रुतज्ञानोपयुक्तात्मा निवृत्तविचारः क्षीणमोहोऽविचलितात्मैकत्ववितकं ध्यानं प्रतिपद्यते । ततो विध्वस्तघाति कर्मचतुष्टयस्तीर्थकरोऽन्यो वा केवली तुल्याऽघातिकर्मस्थितिः सर्वं वाङ मानसयोगं बादरकाययोगं च परित्यज्य सूक्ष्मकाययोगः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानमध्यास्ते । ततः समुच्छिन्नसर्वात्मप्रदेशपरिस्पन्दो निवृत्ताऽशेष
एकत्ववितर्क अविचार ध्यान है ।) इसी प्रकार आगे के दोनों शुक्लध्यानों में अन्वर्थ संज्ञपना जानना चाहिए । शुक्लध्यान का ध्याता पुरुष कैसा होना चाहिए सो बताते
- जो तत्वों का ज्ञाता है, गुप्ति समिति दस धर्म आदि का जिसने भली प्रकार से अभ्यास किया है, प्रगट हुई है वितर्क ( विशिष्ट श्रुत ज्ञान द्वारा ऊहापोह ) की सामर्थ्य जिसके ऐसा संयमी साधु ध्याता है, वह पृथक्त्व रूप से अर्थ व्यञ्जन और योग के संक्रमण से युक्त होकर मोहकर्म की प्रकृतियों का उपशम या क्षपण करता हुआ ध्येय जो द्रव्य परमाणु अथवा भाव परमाणु है उस विषय में मनको स्थिर करके पृथक्त्व वितर्क विचार नामके ध्यानको प्रारम्भ करता है । वही साधु पुनः आगे मोहनीय कर्म को जड़ से क्षय करने का इच्छुक होता हुआ अनन्तगुणी विशुद्धि का आश्रय लेकर ज्ञानावरण कर्म की साथी अनेक कर्म प्रकृतियों के बन्धको रोकता है तथा स्थिति का ह्रास और नाश करता है । इस प्रकार पृथक्त्व वितर्क विचार नामके ध्यान द्वारा मोहनीय कर्म का नाश नौवें दसवें गुणस्थान में करके वह मुनिराज क्षीण मोह नामा बारहवें गुणस्थान में प्रविष्ट होते हैं उस वक्त वे साधु महात्मा विचार रहित अर्थात् अर्थ आदि की संक्रान्ति से रहित रत्न प्रकाशवत् अविचल स्वरूप वाले एकत्व वितर्क नामके द्वितीय शुक्लध्यान को प्राप्त होते हैं उस वक्त वे श्रुतज्ञान से उपयुक्त होते हैं । उस ध्यान द्वारा नष्ट कर दिया है घातिकर्म चतुष्टय को जिन्होंने ऐसे होकर तीर्थंकर केवली या सामान्य केवली बनते हैं । जिनके अघातिया कर्मों की स्थिति समान है ऐसे तेरहवें गुणस्थान वाले वे सयोग केवलीजिन सभी मनोयोग तथा वचनयोग को नष्ट करते हैं तथा बादरकाय योग को छोड़कर सूक्ष्मयोग में आते हैं, उस समय सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नामके तीसरे शुक्लध्यान को ध्याते हैं । तदनन्तर नष्ट हो चुका है सम्पूर्ण