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________________ ५३८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती रिति चेत्किमनिष्टम् ? स्तोककालस्य चिन्तनस्य स्थिरत्वानुभवात् ध्यानसामान्यलक्षणस्य बाधितुमशक्यत्वात् । तत्स्वामिप्रतिपत्त्यर्थमाह तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३४ ॥ तदार्तध्यानं चतुर्विधमेषामविरतादीनां भवतीति वेदितव्यम् । अन्येषामप्रमत्तादीनां तन्निमित्तत्वाभावात् । तत्राऽविरतस्याऽसंयतसम्यग्दृष्ट यन्तस्यातं चतुर्विधमपि सम्भवति । देशविरतस्य प्रमत्तसंयतस्य च निदानवर्ज सम्भवति । निदाने सति सशल्यत्वेन व्रतित्वायोगात् । व्यवहारतो देशविरतस्य स्तुविधमपि भवति स्वल्पनिदानेनाऽणुव्रतित्वस्याविरोधात् । रौद्र केभ्यः कयोश्च सम्भवतीत्याह प्रश्न-यदि ऐसी बात है तो जितने चिन्ता के प्रबन्ध हैं वे सब ध्यान कहलायेंगे ? उत्तर-इसमें क्या बाधा है ? कुछ भी नहीं, थोड़े समय तक होने वाला जो एक सरीखा चिंतन है वह स्थिर रूप से अनुभव में आता ही है अतः उसमें ध्यानसामान्य का लक्षण बाधित नहीं होता। अभिप्राय यह है कि अनिष्ट वस्तु के संयोग होने पर, अथवा इष्ट वस्तु के दूर होने पर उसका बार बार जो चिन्तन होता है वह एकाग्रमन से होता है अतः इसमें ध्यान का लक्षण घटित होता है । अथवा प्रश्नकर्ता का यह अभिप्राय होवे कि आगामी भोगों की वाञ्छारूप निदान को ध्यान कैसे करें ? सो उसका उत्तर यह है कि इसमें भी आगामीकाल के इष्ट पदार्थ की प्राप्ति का एकाग्रमन से चिन्तन होता है अतः इसको ध्यान कहना बाधित नहीं होता है। आत ध्यान के स्वामी बतलाते हैंसूत्रार्थ-वह आतं ध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत के होता है । चारों आतध्यान अविरत आदि के होते हैं ऐसा जानना चाहिए। अन्य जो अप्रमत्तादिक गुणस्थान वाले मुनिराज हैं उनके आतध्यान के निमित्त का अभाव होने से वह ध्यान नहीं होता । अविरत शब्द से चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि तक के चार गुण स्थान लिये हैं इन चार गुणस्थानों में चारों आर्तध्यान होते हैं। देशविरत और प्रमत्तसंयत के निदान को छोड़कर तीन आतध्यान होते हैं, क्योंकि निदान होने पर शल्य होने के कारण व्रतीपना नहीं रहता। व्यवहार की दृष्टि से देश विरत के चारों आतध्यान माने हैं, क्योंकि थोड़ासा निदान यदि कोई अणुव्रती करे तो उससे उसके व्रतीपने में विरोध नहीं आता ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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