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________________ सुखबोधायां तत्वार्थवृत्तो सामर्थ्यात्पूर्वे संसारहेतू इति गम्यते । परयोरेव धर्माशुक्लयोविशुद्धरूपत्वात्, पूर्वयोरातरौद्रयोरप्रशस्तत्वसद्भावात् । तत्र चतुर्भेदस्यार्तस्य प्रथमभेदकथनार्थमाह पार्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥३०॥ अमनोज्ञस्य मनोऽरतिहेतोरर्थस्य सम्यक्प्रयोगे सति तद्विप्रयोगार्थ स्मृतेश्चिन्तायाः समन्वाहारः पौनःपुन्यमार्तमेकं प्रत्येतव्यम् । द्वितीयमाह तविपरीतं मनोज्ञस्य ॥ ३१ ॥ मनोरतिहेतोरर्थस्य सम्यक्प्रयोगेऽसति तत्संप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारो द्वितीयमार्तमवसेयम् । तृतीयमाह वेदनायाश्च ॥ ३२॥ धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान मोक्ष के हेतु होने से प्रशस्त हैं। इसी सूत्र की सामर्थ्य से पूर्व के दो ध्यान संसार के हेतु हैं ऐसा जाना जाता है। धर्म्य और शुक्ल विशुद्ध स्वरूप होने से पूर्व के आतं, रौद्र अप्रशस्त हैं यह स्वतः ज्ञात होता है । आतध्यान चार प्रकार का है । उनमें से पहला प्रकार कहते हैं सूत्रार्थ-अमनोज्ञ-अनिष्ट पदार्थ के संयोग होने पर उसको दूर करने के लिये स्मृति का बार बार उसी में लगा रहना पहला आत ध्यान है। - मनको अनिष्ट-अप्रिय लगने वाले पदार्थ के सम्बन्ध होने पर उसको हटाने के लिये चिन्ता का पुनः पुनः प्रवर्तन होना पहला अनिष्ट संयोग नामका आतध्यान है ऐसा समझना चाहिए । दूसरे आर्त्तध्यान को कहते हैं- सत्रार्थ-उससे विपरीत मनोज्ञ पदार्थ की प्राप्ति हेतु मनका बार बार प्रवर्तन होना दूसरा आत्त ध्यान है। __मनको प्रिय लगने वाले पदार्थ के नहीं मिलने पर उसको प्राप्त करने के लिए बार बार मनमें विचार आना दूसरा इष्ट वियोग नामका आर्त्तध्यान है। तीसरा आर्तध्यान बतलाते हैं सत्रार्थ-वेदना के-पीड़ा के होने पर उसको दूर करने हेतु मनमें बार बार विचार आना तीसरा आर्त्तध्यान है ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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