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________________ नवमोऽध्यायः [ ५३५ ततः परं परावृत्तेरध्यानत्वसिद्धिः संप्रति तद्भदनिर्णयार्थमाह प्रातरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥ २८ ॥ ऋतं दुःखमर्दनमतिर्वा । तत्र भवमार्तम् । रुद्रः क्रूराशयस्तस्य कर्म तत्र भवं वारौद्रम् । धर्मो व्याख्यातः । धर्मादनपेतं धर्म्यम् । शुचिगुणयोगाच्छुक्लम् । तदेतच्चतुर्विधं ध्यानं द्वैविध्यमश्नुते । कुत इति चेत्-प्रशस्ताऽप्रशस्तभेदात् । अप्रशस्तमपुण्यास्रवकारणत्वात् । कर्मनिर्दहनसामर्थ्यात्प्रशस्तम् । किं पुनस्तदिति चेदुच्यते परे मोक्षहेतू ॥ २६ ॥ कोई कोई परवादी अनेक वर्ष प्रमाण काल तक ध्यान होना मानते हैं, उस मान्यता का निराकरण 'अन्तर्मुहूर्तात्' इस पद से हो जाता है, क्योंकि अन्तर्मुहर्त्त के बाद मनका परिवर्तन होने से विषय का परिवर्तन होता है और उससे एक ध्यान नही रहता। अब उस ध्यान के भेदों का निर्णय करते हैं सुत्रार्थ-आर्त्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ये चार ध्यान के भेद हैं। ऋत दुःख को कहते हैं 'अर्दनम् अतिर्वा तत्रभवं आतम्' इस प्रकार अत्ति शब्द से होने अर्थ में अण प्रत्यय आकर आत शब्द बना है। क्रूर आशय को रुद्र कहते हैं रुद्र का कर्म रौद्र है धर्म का अर्थ कह चुके हैं, धर्म से जो अनपेत है सहित है वह धर्म्य . कहलाता है, शुचि-पवित्र गुण के योग को शुक्ल कहा जाता है, इस तरह यह चारः प्रकार का ध्यान दो भागों में बँटता है-प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से। पापास्रव का कारण होने से अप्रशस्त और कर्मों के नष्ट करने की सामर्थ्य युक्त होने से प्रशस्त ध्यान कहलाता है। प्रश्न-वह प्रशस्त ध्यान कौन से हैं ? उत्तर-अब उसी को कहते हैं- .. सूत्रार्थ-आगे के दो ध्यान मोक्ष के हेतु हैं ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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