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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ दिति चेन्न-शक्तयपेक्षत्वात्-कस्यचित्क्वचित्त्यागे शक्तिरिति । व्रतप्रायश्चित्तधर्मविकल्पत्वेनाप्यस्याभिधानं न विरुध्यते । अथ ध्यानप्रतिपादनार्थमाह
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥२७॥ उत्तमसंहननं वज्रर्षभनाराचसंहननं, वज्रनाराचसंहननं, नाराचसंहननमिति त्रिविधम् । प्रथमस्य निःश्रेयसहेतुध्यानसाधनत्वात्तदितरयोश्च प्रशस्तध्यानहेतुत्वादुत्तमत्वम् । उत्तमं संहननमस्येत्युत्तमसंहननः । तस्य ध्यानमनुवर्ण्यमानं भवति नाऽन्यस्य, तत्राऽसमर्थत्वादिति ध्यातृनियमः । एकस्मिन्नने प्रधाने वस्तुन्यात्मनि परत्र वा चिन्तानिरोधो निश्चलता, चिन्तान्तरनिवारणं चैकाग्रचिन्ता
शंका-इस व्युत्सर्ग का अनेक जगह वर्णन किया है वह व्यर्थ है, इसी एक जगह वर्णन पर्याप्त होता है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना । शक्ति की अपेक्षा व्यत्सर्ग में भेद होते हैं किसी के किसी स्थान पर त्याग की शक्ति होती है किसी की नहीं होती है, कहीं सावध का व्युत्सर्ग-त्याग होता है, कहीं पर निरवद्य का भी कुछ समय के लिये त्याग होता है। व्रत-महाव्रतों में परिग्रहों के त्यागरूप व्युत्सर्ग है, प्रायश्चित्त में अपराध के शोधन हेतु व्युत्सर्ग होता है, दस धर्मों में ज्ञानादि के दानरूप या त्यागरूप व्युत्सर्ग विवक्षित है। इस प्रकार व्युत्सर्ग अनेक प्रकार का है और इनको शक्ति के अनुसार किया जाता है अतः अनेकत्र कथन विरुद्ध नहीं है ।
अब ध्यान का प्रतिपादन करते हैं
सत्रार्थ-उत्तम संहनन वाले के मनका एक विषय में स्थिर होना ध्यान है, इसका काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है।
उत्तमसंहनन तीन हैं-वज्रवृषभ नाराच संहनन, वज्रनाराच संहनन और नाराच संहनन । इनमें पहला संहनन मोक्ष के हेतुभूत ध्यान का साधन है अतः उत्तम है तथा इतर दो संहनन प्रशस्त ध्यान के हेतु हैं अतः उत्तम है। उत्तम है संहनन जिसके उस पुरुष को उत्तम संहनन कहा है उसके यह कहा जाने वाला ध्यान संभव है अन्य के नहीं। उस ध्यान में दूसरे हीन संहनन वाले समर्थ नहीं होते इस प्रकार ध्याता पुरुष का नियम बताया है। एक प्रधान वस्तु स्वरूप आत्मा में या अन्य वस्तु में चिन्ताका