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नवमोऽध्यायः
[ ५३१ वाचनापृच्छनाऽनुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ॥ २५ ॥ स्वाध्यायः पञ्चधेति वचनात्तत्र ग्रन्थाऽर्थोभयप्रधानं वाचना। संशयविच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा परानुयोगः पृच्छना । निश्चितार्थस्य मनसाऽभ्यासोऽनुप्रेक्षा । घोषशुद्धं परिवर्तनमाम्नायः । धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेशः प्रज्ञातिशयप्रशस्ताध्यवसायाद्यर्थः । शोभनाध्यायः स्वाध्याय इति वचनाददृष्टप्रयोजनापेक्षः स्वाध्यायाभ्यासः कथितो भवति । व्युत्सर्गः कायकषाययोरित्याह
बाह्याभ्यन्तरोपध्योः ॥ २६ ॥ स्वयमात्मनाऽनुपातोऽर्थो बाह्योपधिः । उपात्तस्तु क्रोधादिराभ्यन्तरोपधिः । तयोव्युत्सगों द्विविधः। कायत्यागा वा नियतकालोऽनियतकालश्चेति । तस्यानेकत्र वचनमनर्थक मनेनैव गतार्थत्वा
सूत्रार्थ-वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ये पांच स्वाध्याय हैं।
स्वाध्याय पांच प्रकार का होता है। उसमें ग्रंथ, अर्थ और उभय को देना-पढ़ाना वाचना कहलाती है । संशय को दूर करने हेतु अथवा ज्ञात विषयको निश्चित बलाधान हेतु परको पूछना पृच्छना स्वाध्याय है। जाने हुए विषय का मनन अभ्यास करना अनुप्रेक्षा कहलाती है। शुद्ध घोष-उच्चारण पूर्वक रटना परिवर्तन करते रहना आम्नाय है। धर्मकथा आदि का उपदेश धर्मोपदेश कहलाता है। ये सभी स्वाध्याय बुद्धि की वृद्धि के लिये तथा परिणामों की विशुद्धि के लिये किये जाते हैं। 'शोभन अध्यायः स्वाध्यायः' इस निरुक्ति के अनुसार परलोक की सिद्धि के लिए अर्थात् आत्म कल्याण के लिये स्वाध्याय करते हैं ऐसा अर्थ समझना चाहिए।
व्युत्सर्ग काय और कषाय का होता है ऐसा बताते हैंसूत्रार्थ- बाह्य और अभ्यन्तर उपाधि के त्यागरूप व्युत्सर्ग दो प्रकार का है।
स्वयं अपने द्वारा जो उपात्त नहीं है अनुपात्त है वह बाह्य उपधि है और क्रोधादिक उपात्त उपधि अभ्यन्तर उपधि है अर्थात् बाह्य पदार्थ और अन्तरंग के कषाय भाव ऐसे दो प्रकार के पदार्थ के व्युत्सर्ग अर्थात् त्याग करने को दो प्रकार का व्युत्सर्ग कहते हैं । काय-शरीर का नियत काल तक या अनियत काल तक त्याग करना व्युत्सर्ग कहलाता है।