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________________ ४९४ ] मुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती असंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकस्य सागरोपमसहस्रसप्तभागौ द्वौ । संज्ञिपञ्चेन्द्रियाऽपर्याप्तकस्यान्तःसागरोपमकोटीकोट्यः । एकेन्द्रियाऽपर्याप्तकस्य तावेव भागौ पल्योपमासंखच यभागोनौ । द्वित्रिचतुःपंचेन्द्रियाऽपर्याप्तकाऽसंज्ञिनां सैव स्थिति: पल्योपमसंखययभागोना विज्ञेया। पाहायुषः कोत्कृष्टा स्थितिरित्यत्रोच्यते त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥ १७ ॥ पुनः सागरोपमग्रहणं कोटीकोटिनिवृत्त्यर्थम् । परा स्थितिरित्यनुवर्तत एव । तत आयुःकर्मण उत्कृष्टा स्थितिस्त्रयस्त्रिशत्सागरोपमपरिमारणा संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकस्यैव भवतीति बोद्धव्यम् । इतरेषां यथागमम् । तद्यथा-असंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकस्य पल्योपमस्य सङ्खय यभागा: । शेषाणामुत्कृष्टा पूर्वकोटी विज्ञेया। अष्टानामपि कर्मप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितियाख्याता। अधुना तासामेव जघन्या स्थितिर्वक्तव्या। तत्र समानजघन्यस्थितिप्रकृतिपञ्चकमवस्थाप्यानुपूर्योल्लंघनेन प्रकृतित्रयस्य दो भाग है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक के सौ सागर के सात भागों में से दो भाग है । असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक के हजार सागर के सात भागों में से दो भाग है। संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक के अन्त:कोटाकोटीसागर है । एकेन्द्रिय अपप्तिक के जो स्थिति पर्याप्तक की कही है उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग कम करना । द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवों के अपने अपने पर्याप्तक के जो स्थिति बतायी है उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग कम करते जाने से प्राप्त होती है । .... प्रश्न-आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति कौनसी है ? - उत्तर-इसी को सूत्र में कहते हैं सूत्रार्थ-आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागर है। सूत्र में सागरोपम शब्द पुनः ग्रहण किया है वह कोटाकोटी की निवृत्ति के लिये है। उत्कृष्ट स्थिति का प्रकरण है। उसमें संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव के आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागर की है ऐसा जाना जाता है। इतर जीवों के आयु कर्म की स्थिति आगमानुसार समझना चाहिए । उसीको बतलाते हैं-असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव के आय कर्म की स्थिति "पल्य के संख्यात भाग प्रमाण है। शेष जीवों के आयु का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध पूर्व कोटी का है। इस प्रकार आठों कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का व्याख्यान किया। अब उन्हीं कर्मों की जघन्य स्थिति कहना योग्य है । उनमें पांच कर्मों की जघन्य स्थिति समान है उनको
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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