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अष्टमोऽध्यायः
[ ४७३ कानि । स्त्रीपुनपुसकानि च तानि वेदाश्च ते स्त्रीनपुसकवेदाः । हास्यं च रतिश्चारतिश्च शोकश्च भयं च जुगुप्सा च स्त्रीपुनपुंसकवेदाश्चेति विग्रहः । तत्र यस्योदयादात्मनो हास्यपरिणामाविर्भावो जायते तद्धास्यं द्रव्यकर्माख्यायते । यस्य विपाकाद्देशादिष्वौत्सुक्यमात्मनो भवति तद्रतिसंज्ञं द्रव्यकर्मोच्यते । अरतिस्तद्विपरीतलक्षणा बोद्धव्या। यस्योदयाच्छोचनपर्यायः प्रभवत्यात्मनस्तच्छोकाख्यं कर्म कथ्यते । यस्योदयाज्जन्तोरुद्वेगस्तद्भयं सप्तविधमुक्तम् । यदुदयादात्मीयदोषसंवरणं भवति तज्जुगुप्साख्यं द्रव्यकर्म । यस्योदयात् स्त्रैणान्भावान्मार्दवक्लव्यमदनावेशनेत्रविभ्रमास्फालनसुखपुंस्कामनादीन्प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः । यदा च तस्योद्भूतवृत्तित्वं तदेतरयोः पुनपुसकयोः सत्कर्मद्रव्यावस्थानापेक्षया न्यग्भावो बोद्धव्यः । ननु लोके प्रख्यातं योनिमृदुस्तनादिकं स्त्रीवेदस्य लिङ्गमिति चेत्तन्न-तस्य नामकर्मोदयकार्यत्वात् । अत: पुसोऽपि स्त्रीवेदोदयः कदाचिद्योषितोऽपि पुवेदोदयोऽपि स्यादाभ्यन्तर
वह रति नामका द्रव्य कर्म है । इससे विपरीत अरति कर्म है । जिसके उदय से आत्मा के शोक पर्याय होती है वह शोक कर्म है । जिसके उदय से जीवको उद्वेग होता है वह भय कर्म है । भय सात प्रकार का पहले कह दिया है । जिसके उदय से यह जीव अपने दोषों को ढ़कता है वह जुगुप्सा नामका द्रव्य कर्म है। जिसके उदय से स्त्री सम्बन्धी मार्दव, भयभीतता, कामावेश, नेत्र मटकाना, पुरुष को चाहना इत्यादि भाव प्रगट होते हैं वह स्त्री वेद कर्म है । जिस समय इस वेद की उद्भूत वृत्ति होती है उस वक्त इतर नपुसक और पुरुष वेद की सत्ता में द्रव्य कर्मरूप स्थिति होकर गौणता रहती है ।
शंका-लोक में स्त्री वेद का लिंग-चिन्ह तो योनि मृदुस्तनादि होना प्रसिद्ध है ? ____समाधान-ऐसा नहीं कहना, उक्त लिंग तो नाम कर्म के उदय से होने वाला कार्य है । इसलिये किसी पुरुष के स्त्री वेद का उदय होता है और कदाचित् किसी स्त्री के भी पुरुष वेद का उदय रहता है क्योंकि वेद कर्म अभ्यन्तर विशेष है। अर्थात् जीव में स्त्री सम्बन्धी, पुरुष सम्बन्धी और नपुसक सम्बन्धी भाव पैदा करना वेद कर्मका कार्य है। शरीर में योनि मेहनादि चिन्ह-लिंग तो नाम कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं। कोई पुरुष है और उसके स्त्री वेद का उदय है तथा कोई स्त्री है और उसके पुरुष वेद का उदय है ऐसा सम्भव है किन्तु जो जन्म से समान या विषम वेद उदय में आया है वही मरणपर्यन्त रहेगा, ऐसा नहीं होता है कि एक ही जीव के उसी एक पर्याय में वेद बदलता हो, वेद तो एक ही अन्त तक रहेगा । केवल द्रव्य वेद जो पुरुषाकार आदि है और भाव वेद जो स्त्री सम्बन्धी भाव है उनमें विषमता संभव है, यह विषमता भी