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________________ अष्टमोऽध्यायः [ ४६९ वृत्तेन्द्रियव्यापारस्यान्तःप्रीतिलवमानहेतुरासीनस्यापि नेत्रगात्रक्रिया सूचिता। सैव प्रचला पुन:पुनरावर्तमाना प्रचलाप्रचलेति व्यपदेशमर्हति । यत्सन्निधानाद्रौद्रकर्मकरणं बहुकर्मकरणं च भवति सा स्त्यानगृद्धिः । कथमिति चेदुच्यते-स्त्यायतेरनेकार्थत्वात्स्वप्नार्थ इह गृह्यते । गृद्धेरपि दीप्तिरर्थः । स्त्याने स्वप्ने गृध्यति दीप्यते यदुदयादात्मा रौद्रं च बहु च कर्म करोति सा स्त्यानगृद्धिरिति संज्ञायते। निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचलेति वीप्सायामाभीक्ष्णे वा द्वित्वनिर्देशः । तत्र निद्रादिकर्मणः सद्वेद्यस्य चोदयान्निद्रादिपरिणामसिद्धिर्भवति । कथमत्र सद्वेद्योदय इति चेत् शोकक्लमादिविगमदर्शनात् । असद्वेद्यस्य च मन्दोदयसद्भावोऽवगन्तव्यः । निद्रा च निद्रानिद्रा च प्रचला च प्रचलाप्रचला च स्त्यानगृद्धिश्च निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला प्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धय इत्यत्रानुवर्तमानेन दर्शनावरणेनाभेदेनाभिसम्बन्धः कृतः। अत्रकस्यापि दर्शनावरणस्य चक्षुरादिभिर्भेदेन निद्रादिभिरभेदेन च सम्बन्धो न विरुध्यते । विवक्षावशेन अवस्था में आत्मा देखना इत्यादि इन्द्रियों के व्यापार से रहित हो जाता है, तथा इसमें अन्तरंग में कुछ प्रीति का भास होता है, यह निद्रा बैठे बैठे भी आ जाती है और नेत्र तथा गात्र शरीर की क्रिया युक्त होती है अर्थात् इस निद्रा में नेत्र खोलना बंद करना शरीर का हिलना आदि क्रिया होती हैं। वही प्रचला पुनः पुनः आना प्रचलाप्रचला है। जिसके उदय से आत्मा रौद्रकर्म करता है या बहुतसा कार्य कर लेता है वह स्त्यानगृद्धि है। इसका शब्द और अर्थ किस तरह है ऐसा प्रश्न होने पर बतलाते हैं-स्त्याय धातुके अनेक अर्थ होते हैं, उनमें से यहां स्वप्न शयन अर्थ ग्रहण किया है, गृद्धि का अर्थ दीप्ति है, 'स्त्याने स्वप्ने गृध्यति दीप्यते यदुदयादात्मा रौद्रं च बहु कर्म च करोति सा स्त्यानगद्धिः' स्वप्न में नींद में भी दीप्त रहता है अर्थात् जिस कर्म के उदय से आत्मा शयन अवस्था में कठोर भयंकर कार्य करता है या बहुतसा कार्य करता है वह स्त्यानगृद्धि है। निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला पद में वीप्सार्थ या अभीक्षा अर्थ में द्वित्व हुआ है । उसमें निद्रादि कर्म के तथा साता वेदनीय कर्म के उदय से निद्रादि परिणामों की सिद्धि होती है। प्रश्न-इस में साता वेदनीय का उदय किस प्रकार निमित्त होता है ? उत्तर--निद्रा पूर्ण होने पर शोक, खेद, श्रम आदि नष्ट हो जाते हैं अतः इसमें साता का उदय माना है । अथवा असाता वेदनीय का मन्द उदय उसमें कारण है ऐसा समझना चाहिए। निद्रा आदि पदों में द्वन्द्व समास है। इनका दर्शनावरण के साथ अभेद से सम्बन्ध किया है । यहां एक दर्शनावरण का चक्षु आदि के साथ भेद से संबंध करना और निद्रा आदि पदों के साथ अभेद से सम्बन्ध करना विरुद्ध नहीं है, विवक्षा
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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