SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 513
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती अवधिकेवलं चेति दर्शनज्ञानद्वयं कथितम् । चक्षुश्चाचक्षुश्चावधिश्च केवलं च चक्षुर चक्षुरवधिकेवलानि । तेषां चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानाम् । अत्र दर्शनावरणाभिसम्बन्धाद्भदनिर्देशो वेदितव्यः । चक्षुर्दर्शनावरणमचक्षुर्दर्शनावरणमवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणमिति । मदखेदक्लमापनयनार्थो यः स्वापः स निद्रेत्युच्यते । निपूर्वस्य द्रातेः कुत्साक्रियस्य निद्राशब्दस्य निष्पत्तिः । यत्सन्निधानादात्मा निद्रायते कुत्स्यते सा निद्रा । द्रायतेर्वा स्वप्नक्रियस्य निद्रति सिध्यति । तस्या निद्रायाः पुनःपुनर्वत्तिनिद्रानिद्रेत्युच्यते । या क्रियात्मानं प्रचलयति सा प्रचलेति व्यपदिश्यते । सा पुनः शोकश्रममदादिप्रभवा विनि को ग्रहण करने में उपकरणभूत है, उस अचक्षु के स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, कर्णेन्द्रिय और नो इन्द्रिय-मन ऐसे पांच प्रकार कहे हैं। विशेषार्थ—'न चक्षुःइति अचक्षुः' ऐसा यहां अचक्षु पद में नञ् समास हुआ है। यहां समास में जो नकार है वह निषेध या अभाव का द्योतक है, अभाव दो प्रकार का है । पर्युदास प्रतिषेध अभाव और प्रसज्य प्रतिषेध अभाव । भावान्तर स्वभाव वाला पर्युदास प्रतिषेध अभाव है अर्थात् अमुक का निषेध या अभाव है तो अन्य किसी भाव का सद्भाव है ऐसा इस पद का अर्थ होता है, और सर्वथा अभावरूप प्रसज्य प्रतिषेध होता है। यहां 'न चक्षुः इति अचक्षुः' इसमें चक्षु इन्द्रियपने का तो निषेध या अभाव हुआ किन्तु अन्य इन्द्रियपने का अभाव नहीं हुआ है अतः टीकाकार ने कहा कि पर्युदास प्रतिषेधरूप अचक्षु है, अस्तु । इन दोनों अभावों का विशद विवेचन प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि न्याय ग्रंथों में पाया जाता है । अवधिज्ञान और अवधिदर्शन तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन का कथन भी पहले किया है । चक्षु आदि चार पदों में द्वन्द्व समास है। इनमें दर्शनावरण शब्द का सम्बन्ध करके भेद बनाना चाहिए, अर्थात् चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इस तरह प्रकृतियों के नाम हैं। मद, खेद, श्रम को दूर करने के लिए जो सोया जाता है वह निद्रा है । निःउपसर्ग सहित कुत्सा अर्थ में द्रा धातु से निद्रा शब्द बना है। जिसके सन्निधान से आत्मा निद्रित होता है-कुत्सित अवस्था को प्राप्त होता है वह निद्रा है, अथवा सामान्यतः स्वप्न क्रिया-शयन क्रियार्थक द्रा धातु से निद्रा शब्द निष्पन्न होता है। उस निद्रा की पुनः पुनः वृत्ति होना निद्रानिद्रा है । जो आत्मा को प्रचलित करती है उस क्रिया को प्रचला कहते हैं। वह शोक, श्रम और मद आदि के निमित्त से होती है, इस निद्रा
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy