SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 479
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो तिक्रमो भवति । कूपावतरणादेरधोदिगवधेरतिवृत्तिर्वेदितव्या। भूमिबिलगिरिदरीप्रवेशादेस्तिर्यगतिचारो द्रष्टव्यः । क्षेत्रस्य वर्धनं वृद्धिराधिक्यं क्षेत्रवृद्धिः । या दिक् पूर्व योजनादिभिः परिच्छिन्ना न तु क्षेत्रवास्त्वादिवत्परिग्रहबुद्धया स्वीकृता, तस्याः पूर्वप्रमाणाल्लोभवशेनाधिकाकांक्षणमित्यर्थः । एकस्याः स्मृतेरन्या स्मृतिः स्मृत्यन्तरम् । तस्याधानं मनस्यारोपणं स्मृत्यन्तराधानं पूर्वकृतदिक्परिमाणाऽननुस्मरणमित्यर्थः । ऊधिस्तिर्यग्व्यतिक्रमाश्च क्षेत्रवृद्धिश्च स्मृत्यन्तराधानं च ऊवधिस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि । त एते ऊर्ध्वातिक्रमादयः पञ्च दिग्विरमणगुणव्रतस्याऽतिचारा भवन्ति । देशविरतिशीलातिक्रमावधारणार्थमाह प्रानयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥३१॥ स्वयं सङ्कल्पिताध्यारूढक्षेत्रादन्यत्र कर्तव्यस्यात्रानयेति यदाज्ञापनं तदानयनमित्याख्यायते । परिच्छिन्नदेशाबहिः स्वयमगत्वा त्वमेवं कुर्विति स्वाभिप्रेतव्यापारसाधनायान्यस्य प्रेष्यस्य कर्मकरस्य प्रयोजनं प्रेष्यप्रयोग इति निरुच्यते । संकल्पिते देशे स्थितस्य ततो बहिःस्थिताव्यापारकरान्पुरुषानुद्दिश्य दरों आदि में प्रवेश करते समय तिर्यग्व्यतिक्रम होता है। क्षेत्र की वृद्धि करना क्षेत्र वृद्धि अतिचार है। पहले योजन आदि के द्वारा जो दिशा की मर्यादा की थी उसमें क्षेत्र वास्तु आदि के समान परिग्रह बुद्धि नहीं रहती है, वह जो मर्यादा की थी, लोभवश उससे अधिक की कांक्षा रखना क्षेत्रवृद्धि अतिचार है । एक स्मृति में दूसरी स्मृति होना स्मृत्यन्तर है उसका आधान मनका उसमें लगना स्मृत्यन्तराधान है, अर्थात् पहले के किये हए दिशाओं के जो प्रमाण थे उनको भूल जाना। इसप्रकार ऊर्ध्व अधः और तिर्यग् दिशाओं का व्यतिक्रमरूप तीन अतिचार तथा क्षेत्र वृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ये पांच दिग्विरति व्रत के अतिचार हैं। देश व्रत के अतिचारों को कहते हैं सूत्रार्थ-आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गल का क्षेपण ये पांच देशवत के अतिचार हैं । स्वयं तो संकल्प किया है कि इस क्षेत्र से बाहर नहीं जागा किन्तु कार्यवश उक्त क्षेत्र से बाहर दूसरे को यहां उस वस्तु को लावो ऐसा कहना आनयन कहा जाता है । नियमित देश से बाहर स्वयं न जाकर तुम वहां जाकर इस तरह काम करना ऐसा अपने इष्ट व्यापार सिद्ध करने हेतु नौकर को भेजना प्रेष्य प्रयोग कहलाता है। अपने नियम लिये हुए स्थान पर स्थित होकर वहां से जो बाहर के स्थान में स्थित पुरुष हैं उन कर्मचारियों को उद्देश्य करके खाँसना आदि शब्द द्वारा
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy