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________________ २ ] मुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती ____ अस्य समुदायार्थः कथ्यते-मोक्षोपायस्योपदेष्टारं सकलजीवादितत्त्वानां ज्ञातारं कर्ममहापर्वतानां भेत्तारं भगवन्तमर्हन्तमेवानन्तज्ञानाद्येतद्गुणप्राप्तयर्थं वन्देऽहं तस्यैव सकलप्रमाणाविरुद्धानेकान्तात्मकार्थभाषित्वादिति । किस्वरूपोऽसौ मोक्षमार्ग इति केनचिदासन्नभव्येन परिपृष्टे सत्याचार्यः प्राह सम्यग्दर्शनज्ञानवारित्राणि मोक्षमार्गः ।।१॥ सम्यक्शब्दः प्रशस्तवाची । स च दर्शमादिभिस्त्रिभिविशेषणत्वेन प्रत्येकमभिसम्बध्यतेसम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमिति । यज्जीवादीनां याथात्म्यश्रद्धानं ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुस्तत्सम्यग्दर्शनम् । तेषामेव याथात्म्यनिश्चयः सम्यग्ज्ञानम् । संसारकारणविनिवृत्ति प्रत्युद्यतस्य अर्थ-जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करनेवाले हैं, संपूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता हैं ऐसे महान आत्मा को उनके मुणों की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूं। इस श्लोक का समुदायार्थ कहते हैं-मोक्ष के उपाय के उपदेष्टा सकल जीव-अजीव आदि तत्त्वों के ज्ञायक कर्मरूपी महापर्वतों के भेदक हैं ऐसे अरहन्त भगवान को उन्हीं अनन्त ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति के लिये मैं नमस्कार करता हूं क्योंकि वे अरहन्तदेव ही सकल प्रमाणों से अविरुद्ध अनेकान्त स्वरूप पदार्थों का कथन करनेवाले हैं । ___ वह मोक्षमार्ग किस रूप है ऐसा किसी आसन्न भव्य के द्वारा प्रश्न करने पर आचार्य देव कहते हैं सूत्रार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र मोक्ष का मार्ग है, सम्यक शब्द प्रशस्तवाची है । सूत्र में एक बार प्रयुक्त हुआ सम्यक् शब्द प्रत्येक के साथ जोड़ना। जो जीवादि सात तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान रूप है और ज्ञान में सम्यग् व्यपदेश का हेतु है वह सम्यग्दर्शन कहलाता है। उन्हीं जीवादि तत्त्वों का वास्तविक निश्चय होना सम्यग्ज्ञान है । संसार के कारणों को दूर करने में उद्यमशील सम्यग्ज्ञानी पुरुष के बाह्य और अभ्यन्तर क्रियाओं का त्याग सम्यक्चारित्र कहलाता है । "पश्यति दृश्यते अनेन, दृष्टिर्वा दर्शनम्" देखता है, देखा जाता है और देखना मात्र यह दर्शन शब्द का कर्तृ साधन, करणसाधन और भावसाधन रूप निरुक्तिपरक अर्थ है । इसी प्रकार "जानाति, ज्ञायते अनेन शातिर्वा ज्ञानं चरति चर्यते चरणमात्रं वा चारित्रं" जानता है, जाना जाता है और जानना मात्र तथा आचरण करता है, आचरण
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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