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________________ सप्तमोऽध्यायः [ ३९७ वधबन्धनहस्तपादकर्णनासोत्तरोष्ठच्छेदनभेदनसर्वस्वहरणादीन्प्रतिलभते । प्रेत्य चाऽशुभां गति गहितश्च भवतीति स्तेयादुपरमः श्रेयान् । तथाऽब्रह्मचारी मदविभ्रमोद्ग्रथितचित्तो वनगज इव वासितावंचितो विवशो वधबन्धपरिक्लेशादीननुभवति । मोहाभिभूतत्वाच्च कार्याऽकार्याऽनभिज्ञो न किञ्चिदकुशलं नाचरति । पराङ्गनालिङ्गनासङ्गकृतरतिश्च इहैव वैरानुबन्धिनो लिङ्गच्छेदनवधवन्धनसर्वस्वहरणादीनपायान्प्राप्नोति । प्रेत्य चाऽशुभां गतिमश्नुते । गर्हितश्च भवतीत्यतो विरतिरात्महिता । तथा परिग्रहवान् शकुनिरिव गृहीतमांसखण्ढोऽन्येषां तदर्थिनां पतत्रिणामिहैव तस्करादीनामभिभवनीयो भवति । तदर्जनरक्षणप्रक्षयकृतांश्च दोषान्बहूनवाप्नोति । न चास्य तृप्तिभक्तीन्धनरिवाग्नेः । लोभाभिभूतत्वाच्च कार्याऽकार्याऽनपेक्षो भवति । प्रेत्य चाऽशुभां गतिमास्कन्दति । लुब्धोऽयमिति गर्हितश्च भवतीति पीटना, वध, बन्धन, हाथ पैर और नाक कानका तथा ओंठका काटना, छेदना, भेदना सब लुट जाना इत्यादि बड़े भारी कष्टों को चोर भोगता है । परलोक में कुगति को प्राप्त करता है और इस लोक में निंदित होता है इसलिये चोरी कर्म से सदा दूर रहना हितकारक है । तथा अब्रह्मचारी मद विभ्रम से व्याकुल रहता है, वनके हाथी के समान नकली हथिनी से ठगाया गया गर्त में गिरकर वध, बन्धन, परिक्लेशों को सहता है। जो मोह से अभिभूत है वह कार्य और अकार्य को नहीं जान पाता, अतः कुछ भी ऐसा कुकर्म नहीं है जिसको कि वह अब्रह्मचारी न करे वह सर्व ही खोटे कार्यको कर डालता है । परायी स्त्री के सेवन में आसक्त व्यक्ति यहीं पर जिसकी स्त्रीको भोगा गया है वह पुरुष इससे बड़ा भारी वैर करके उसके लिंगको छेद देता है, मार देता है, बांध देता है राजा उसके सारे धनको लूट लेता है इत्यादि अनेक अपायोंको परस्त्री सेवी प्राप्त करता है और परलोक में नीच गति में जाता है, इसकी सर्व लोक निन्दा करते हैं, अतः अब्रह्म से दूर होना ही कल्याणकारी है। परिग्रहधारी पुरुष चोर आदि के द्वारा कष्टको प्राप्त करता है, जैसेकि मुख में मांस की डली लिया हुआ पक्षी दूसरे मांस लोभी पक्षियों द्वारा नोचा जाना गिरा देना इत्यादि कष्टों को पाता है। वैसे परिग्रहधारी की दशा होती है । तथा धनके उपार्जन में उसके रक्षण में और नष्ट हो जाने पर बहुत भारी मानसिक आदि पीड़ायें भोगनी पड़ती हैं, धनसे धनिक को कभी तृप्ति भी नहीं होती, जैसे इंधनों से अग्नि तृप्त नहीं होती। धनके लोभ से अभिभूत प्राणी कार्य अकार्य को नहीं सोचता कुछ भी कर डालता है। मरकर कुगति में जाता है, वहां सब उसकी निन्दा करते हैं कि यह बड़ा लोभी है, इसलिये परिग्रह से विरक्त होना आत्मा के लिए हितकारक है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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