SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुखबोधायां तत्त्वार्थं वृत्तौ हिंसादिष्विहामुत्रचाऽपायाऽवद्यदर्शनम् ||६|| हिंसादीनि पञ्चाव्रतान्युक्तानि । इहास्मिन्भवे प्रमुत्रापरस्मिन्भवे इत्यर्थः । चकार उक्तसमुच्चयार्थ एव । प्रभ्युदयनिःश्रेयसार्थानां क्रियासाधनानां नाशकोऽनर्थोऽपाय इत्युच्यते । अथवा इहलौकिकादिसप्तविधं भयमपाय इति कथ्यते । श्रवद्यं गह्यं निन्द्यमिति यावत् । दर्शनमवलोकनमुच्यते । श्रपायश्चावद्यं चाऽपायावद्ये । तयोर्दर्शनमपायावद्यदर्शनमिहामुत्र च हिंसादिषु भावयितव्यम् । कथमिति चेदुच्यते-हिंसायां तावत् हिंस्रो हि नित्योद्वेजनीयः । सतताऽनुबद्धवैरश्च भवति । इहैव च वधबन्धक्लेशादीनि प्रतिलभते । प्रेत्य चाशुभां गतिमश्नुते । गर्हितश्च भवतीति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान् । तथा अनृतवादी प्रश्रद्धेयो भवति । इहैव च जिह्वाछेदनादीन्प्रतिलभते । मिथ्याभ्याख्यानदुःखितेभ्यश्च बद्धवैरेभ्यो बहूनि व्यसनान्यवाप्नोति । प्र ेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीत्यनृतवचनाद्विरतिः श्रेयसी । तथा स्तेनः परद्रव्यहरणासक्तमतिः सर्वस्योद्वेजनीयो भवति । इहैव चाऽभिघात 1 ३९६ ] सूत्रार्थ - हिंसादि पापोंके विषयों में विचार करना चाहिए कि ये सर्व ही पापअवतरूप परिणाम इस लोक में और परलोक में अपायकारक हैं तथा अवद्य दोषकारक हैं । हिंसादि पांच अवूत कहें हैं । इस भव और परभव को 'इह अमुत्र' कहते हैं चकार उक्त समुच्चय के लिए ही है । अभ्युदय और निःश्रेयस अर्थ के जो साधनभूत क्रियायें हैं उनका नाश करने वाले को अनर्थ या अपाय कहते हैं । अथवा इहलोक भय इत्यादि सात प्रकार के भयोंको अपाय कहते हैं । अवद्य निन्द्य और गह्यं ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं । अवलोकन को दर्शन कहते हैं । अपाय और अवद्यको देखना अर्थात् हिंसादि पाप इस लोक में और परलोक में अपाय और अवद्य करने वाले हैं ऐसा विचार करना चाहिए । हिंसादिक कैसे अपाय करते हैं सो बताते हैं, सर्व प्रथम हिंसा के विषय में कहते हैं - हिंसा करने वाला व्यक्ति सतत डरता रहता है घबराता रहता है, उसका जीवों के साथ हमेशा वैर होता है । इसी भव में वध, बन्धन क्लेश, कष्ट, दुःखों को पाता है तथा परलोक में अशुभगति में जाता है । हिंसक व्यक्ति की लोक सदा निन्दा भी करते हैं, ऐसा विचार कर हिंसा से विरत होना श्रेयस्कर है । तथा झूठ बोलने वाला व्यक्ति विश्वास पात्र कभी नहीं होता, इसी लोक में जिह्वाच्छेद आदि को प्राप्त होता है । जिसके साथ झूठा व्यवहार किया है वे पुरुष उससे दुःखी होते हैं और उससे गाढ वैर करने लग जाते हैं और इस मिथ्याभाषी को बड़ा भारी कष्ट देते हैं। झूठ बोलने वाला परलोक में नीच गति में जाता है । और यहां पर निंदित होता है इस तरह विचार कर असत्य से दूर रहना कल्याणकारी है । पराये धनका चुराने वाला चोर सभी के लिए उद्वेगकारी होता है, इसी लोक में मारना,
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy