SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती योज्या । तथा युज्यते युनक्ति युज्यतेऽनेन योजनमात्रं वा योग इति योगशब्दस्यापि कर्मादिसाधनसंभवो नेतव्यः । कायश्च वाक्च मनश्च कायवाङ् मनांसि । तेषां कर्म कायवाङ मनस्कर्म । कृकमिकंसेत्यादिना सकारः । ततः कायादीनां यत्कर्म स योग इत्याख्यायते । स च चेतनात्मप्रदेशपरिस्पन्दरूपो मुख्यो भावयोगः । पौद्गलिककायादिवर्गणाविशेषरूपो गौणो द्रव्ययोगश्चेति द्वैविध्यमास्कन्दति । तथा निमित्तभेदादात्मप्रदेशपरिस्पन्दाख्यो योगस्त्रिधाऽपि भिद्यते-काययोगो वाग्योगो मनोयोगश्चेति । तद्यथा-वीर्यान्तरायक्षयोपशमसद्भावे सत्यौदारिकादिसप्तविधकायवर्गणान्यतमालम्बनापेक्षयात्मप्रदेशपरिस्पन्दः काययोगः । शरीरनामकर्मोदयापादितवाग्वर्गणालम्बने सति वीर्यान्तरायमत्यक्षराद्यावरणक्षयोपशमापादिताभ्यन्तरवाग्लब्धिसान्निध्ये वाक्परिणामाभिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो वाग्योगः । अभ्यन्तरवीर्यान्तराय नो इंद्रियावरणक्षयोपशमात्मकमनोलब्धिसन्निधाने बाह्यनिमित्तमनोवर्गणालम्बने च सति मन.परिणामाभिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोगः । क्षायिकोऽपि त्रिविध सिद्ध होता है इसी तरह शेष कारकों में भी लगाना चाहिए। तथा 'युज्यते, युनक्ति, युज्यते अनेन योजन मात्रं वा योगः' इस तरह योग शब्द भी कर्मादि साधन से सिद्ध करना चाहिए । काय आदि पदों में द्वन्द्व समास गर्भित तत्पुरुष समास है। 'ककमिकंस' इत्यादि व्याकरण सूत्र से 'मनः कर्म मनस्कर्म' ऐसा विसर्ग का सकार हुआ है । काय आदि का जो कर्म (क्रिया है) वह योग है। चेतन आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदरूप जो भाव योग है वह मुख्य योग है । पौद्गलिक काय आदि वर्गणा परिस्पंद स्वरूप जो द्रव्य योग है वह गौण योग है । इसप्रकार योग दो प्रकार का है। निमित्त के भेद से आत्मा के प्रदेशों में हलन चलन होता है उसकी अपेक्षा योग के तीन भेद होते हैं-काययोग, वचनयोग और मनोयोग। आगे इनका स्वरूप बताते हैंवीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम होने पर औदारिक आदि सात प्रकार की काय वर्गणाओं का अवलंबन लेकर आत्मप्रदेशों में जो स्पंदन होता है वह काययोग कहलाता है । शरीर नाम कर्म के उदय होने पर वचन वर्गणा का अवलंबन होने पर तथा वीर्यांत राय एवं मति अक्षरावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम हो जाने पर अभ्यन्तर में वचनलब्धि की निकटता से वचन परिणाम के अभिमुख आत्मा के प्रदेशों में परिस्पंदन होता है वह वचनयोग है । अंतरंग में वीर्यांतराय तथा नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम होने से मनोलब्धि की निकटता होती है उससे तथा बाह्य निमित्तभूत मनोवर्गणा का अवलंबन मिलने पर मनपरिणाम के संमुख आत्मा के प्रदेशों में स्पंदन होना मनोयोग है । सयोग केवली भगवान के वीर्यांतराय आदि कर्मोका क्षय हो चुका है अतः उनका योग क्षायिक
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy