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अथ षष्ठोऽध्यायः
इदानीं व्याख्याताऽजीवपदार्थानन्तरोद्दिष्टास्रवपदार्थनिर्देशार्थं तावद्योगस्वरूपमुच्यते
कायवाङमनस्कर्म योगः ॥१॥ कायादयः शब्दा व्याख्यातार्थाः । कर्मशब्दोऽत्र क्रियाशब्दवाची गृह्यतेऽन्यार्थस्यासम्भवात् । स च विवक्षावशात्कर्मादिसाधनो वेदितव्यः । वीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षयक्षयोपशमापेक्षेणात्मनाऽऽत्मपरिणामः, पुद्गलेन च स्वपरिणामो विपर्ययेण च निश्चयव्यवहारनयापेक्षया क्रियत इति कर्म । स परिणामः कुशलमकुशलं च द्रव्यभावरूपं करोतीति कर्म । बहुलापेक्षया क्रियतेऽनेन कर्मेत्यपि भवति । साध्यसाधनभावानभिवीप्सायां स्वरूपावस्थितत्वकथनात्कृतिः कर्मेत्यपि भवति । एवं शेषकारकोपपत्तिश्च
अब अजीव पदार्थ के अनन्तर कहा गया जो आस्रव पदार्थ है उसका कथन प्रारंभ होता है, उसमें भी प्रथम ही योग का स्वरूप कहते हैं
सूत्रार्थ-काय, वचन और मनकी क्रिया को योग कहते हैं । काय आदि शब्दों का अर्थ कह आये हैं। यहां पर कर्म शब्द का अर्थ 'क्रिया' लिया है क्योंकि इसका दूसरा अर्थ यहां सम्भव नहीं है । विवक्षा के अनुसार कर्म शब्द भाव साधन कर्म साधनादि रूप सिद्ध होता है । वीर्यान्तराय तथा ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा लेकर आत्मा द्वारा जो आत्मपरिणाम किया जाता है, एवं विपर्यय पुद्गल द्वारा (विकारी पुद्गल द्वारा) जो स्व परिणाम किया जाता है वह निश्चय तथा व्यवहारनय की अपेक्षा 'कर्म' कहलाता है 'क्रियते इति कर्म' वह परिणाम कुशल और अकुशलरूप एवं द्रव्य और भावरूप है। करोति इति कर्म । व्याकरण में 'बहुलम्' सूत्र है उसको अपेक्षा इसके द्वारा किया जाता है 'क्रियतेऽनेन इति कर्म' तथा जहां साध्य साधनभाव अनभिप्रेत है वहां स्वरूप अवस्थितत्व का कथन होने से 'कृतिः कर्म' ऐसा भी कर्म शब्द