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________________ पचमोऽध्यायः वर्णितस्तस्मादुच्यतां कः परिणाम इति प्रश्ने उत्तरमाह [ ३३७ तद्भावः परिणामः ।। ४२ ।। अथवा गुणा द्रव्यादर्थान्तरभूता इति केषाञ्चिद्दर्शनम् । तत्किं भवतः सम्मतम् ? नेत्याहयद्यपि कथञ्चित्संज्ञादिभेदहेत्वपेक्षया द्रव्यादन्ये गुणास्तथापि तदव्यतिरेकात् तत्परिणामाच्चाऽनन्ये भवन्ति । यद्येवं स उच्यतां कः परिणाम इति ? तन्निश्चयार्थमिदमुच्यते-तद्भावः परिणाम इति । जीवादि सात तत्त्वों का कथन पहले अध्याय में आया है उनमें पुण्य और पाप दो को मिलाने से जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप ऐसे नव पदार्थ होते हैं । उपर्युक्त छह द्रव्यों में से काल को छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं । जिस द्रव्य में बहुत प्रदेश होते हैं वे अस्तिकाय हैं । काल द्रव्य एक एक प्रदेश वाला अणुरूप ही रहता है, कभी भी कालाणुओं का परस्पर में बंध नहीं होता अतः काल अस्तिकाय नहीं । द्रव्यों में जो विविध पर्यायें पायी जाती हैं उनके चार्ट अगले पृष्ठों में देखिये - प्रश्न- यहां पर प्रश्न होता है कि परिणाम शब्द को बार-बार कहा गया है किन्तु उसका अर्थ नहीं बताया, अतः अब यह कहिये कि परिणाम किसे कहते हैं ? उत्तर - अब इसीको सूत्र द्वारा कहते हैं सूत्रार्थ - उस उस वस्तु का या द्रव्य का जो भाव है वह परिणाम कहलाता है । अथवा यहां पर किसी ने प्रश्न किया कि द्रव्य से गुण पृथक् भिन्न होते हैं ऐसा परवादी वैशेषिक आदि का मत है । वह मत क्या आप जैन को मान्य है ? तो इसके उत्तर में कहते हैं कि वह मत हमें मान्य नहीं है । हम जैन तो संज्ञा, लक्षण आदि की अपेक्षा गुणों को द्रव्य से कथंचित् भिन्न भले ही मानते हैं किन्तु उससे अव्यतिरेकी होने से अर्थात् द्रव्य से अन्यत्र स्थित नहीं होने से तथा उसी द्रव्य का परिणाम स्वरूप होने से वे ग ुण अभिन्न ही होते हैं । इस तरह हम जैन का सिद्धांत है । यह सिद्धान्त निश्चित हो जाने पर प्रश्न उठा कि वह परिणाम क्या है जिसे आप द्रव्य से अभिन्न मानते हैं ? तो इसके उत्तर स्वरूप सूत्र आया कि 'तद्भावः परिणामः' होने को भाव
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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