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________________ पंचमोऽध्यायः [ ३३३ स इत्यनेन प्रसिद्धो व्यवहारकालः प्रतिनिर्दिश्यते । सांप्रतिकस्यैकसमयिकत्वेष्यतीता अनागताश्च समया अन्तातीतत्वादनन्ता इति व्यपदिश्यन्ते । ततोऽनन्ताः समया यस्य सोऽनन्तसमयो व्यवहारकालो भवतीति व्याख्यायते । अथवा मुख्यस्यैव कालस्य प्रमाणावधारणार्थमेवेदं वचनम् । अनंतपर्यायहेतुत्वादेकोऽपि कालाणुरनन्त इत्युपचर्यते । समयः पुनः परमनिरुद्ध: कालांशस्तत्प्रचयविशेष प्रावलिकादिाख्यातः । ततः स परमार्थकालः प्रत्येकमर्थपर्यायार्थादेशादनन्तसमयो भवति द्रव्यतस्तथा तस्यासङ्खच यत्वात् । अत्राह-गुणपर्ययवद्रव्यमित्युक्तम् । तत्र के गुणा इत्यत्रोच्यते द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ।। ४१ ॥ द्रव्यशब्द उक्तार्थः । गुणा यत्राश्रयन्ते-आसते स आश्रय आधार इति च संज्ञायते 'अधिकरणे पुल्लिङ्ग संज्ञायां पुखौ घः प्रायेण' इति घप्रत्ययस्य विधानात् । अथवा गुणैराश्रियत इत्याश्रयः । 'सः' शब्द से व्यवहारकाल का निर्देश किया गया है। वर्तमानकाल एक समय रूप है किन्तु अतीत और अनागतकाल अनंत समयवाला है, इसलिये व्यवहारकाल अनंत है ऐसा कहा है । अनंतसमय हैं जिसके वह अनंतसमय कहलाता है ऐसा बहुव्रीहि समास 'अनंतसमयः' पद में है । अथवा यह 'सोऽनंतसमयः' सूत्र मुख्य कालका प्रमाण बतलाने के लिए ही प्रयुक्त हुआ है, देखिये ! एक भी कालाणु अनन्त पर्यायों का हेतुनिमित्त-कारण है इसलिये कालाणु को उपचार से अनंत कहा जाता है। समय का लक्षण बताते हैं-जो परम निरुद्धरूप कालांश है उसे समय कहते हैं, समयों का समूह आवलि इत्यादि हैं इसका कथन कर आये हैं, इस तरह अनंत अर्थपर्यायों में प्रत्येक अर्थपर्याय की अपेक्षा परमार्थकाल अनन्त समयरूप होता है। द्रव्यकी अपेक्षा तो यह परमार्थकाल असंख्यात संख्या वाला है अर्थात् असंख्यात कालाणु होने से असंख्यात हैं । प्रश्न- गणपर्यय वाला द्रव्य होता है ऐसा कहा किन्तु गणका लक्षण नहीं बताया ? उत्तर-अब उसीको बताते हैंसूत्रार्थ-जो द्रव्यों के आश्रय में रहते हैं एवं स्वयं निर्गुण हैं वे गुण कहलाते हैं । द्रव्य शब्द का अर्थ कह चुके हैं। ग ण जिसमें आश्रय लेते हैं, रहते हैं वह आश्रय या आधार कहलाता है। 'अधिकरणे पुल्लिगे संज्ञायां पुखौ घः प्रायेण' इस व्याकरण सूत्र द्वारा 'घ' प्रत्यय आकर आश्रय शब्द बना है। अथवा गुणों द्वारा आश्रय लिया
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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