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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती अनेकात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्य चिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितप्राधान्यमर्थरूपमर्पितमुपनीतमिति यावत् । तद्विपरीतमनर्पितं प्रयोजनाभावात् । सतोप्यविवक्षा भवतीत्युपसर्जनीभूतमनर्पितमित्युच्यते । अर्पितं चानपितं चापितानपिते । ताभ्यां सिद्धिरपितानपितसिद्धिस्तस्या हेतोः सर्व वस्तु नित्यमनित्यं च न विरुध्यते। सर्वथैकान्त एव विरोधसद्भावात् । तद्यथा-मृत्पिण्डो रूपिद्रव्यमित्यर्पित: स्यान्नित्यस्तदर्थापरित्यागात् । अनेकधर्मपरिणामिनोऽर्थस्य धर्मान्तरविवक्षाव्यापारादूपिद्रव्यात्मनाऽनर्पणान्मृत्पिण्ड इत्येवमर्पितं पुद्गलद्रव्यं स्यादनित्य तस्य पर्यायस्याध्र वत्वात् । तत्र यदि द्रव्याथिकनयविषयमात्रमेव परिगृह्यत तदा व्यवहारलोपः स्यात् तदात्मकस्यैव वस्तुनोऽसम्भवात् । यदि च पर्यायार्थिकनयगोचरमात्रमेवाभ्युपगम्यते तदापि लोकयात्रा न सिध्यति-तथाविधस्यैव वस्तुनोऽसद्भावात् । तयोरेकत्रोपसंहृतयोरेव लोकयात्रासामर्थ्य भवति। तदुभयात्मकस्य वस्तुनः प्रसिद्धरित्येवमपितानर्पितव्यवहारसिद्ध नित्यत्वानित्यत्वे विरोधाभावात् । कुतः पुननिरंशपरमाणुनामन्योऽन्यं बन्धो यतः स्कन्धः परमार्थसन्नित्याह
वस्तु अनेक धर्म-गुण-स्वभाव वाली है । प्रयोजन के वश से उन अनेक धर्मों में से किसी एक धर्मकी विवक्षा द्वारा उसको प्रधान कर देना अर्पित या उपनीत कहलाता है । उससे जो विपरीत है अर्थात् जिस धर्म की विवक्षा नहीं है वह अनर्पित कहलाता है, अनर्पित प्रयोजन रहित है । अर्पित और अनर्पित द्वारा सिद्धि होती है। उसी कारण से सर्ववस्तु नित्य और अनित्यरूप मानने में विरोध नहीं आता । हां ! सर्वथा एकांत में तो विरोध आता है । आगे इसीको बतलाते हैं-जैसे मिट्टी का पिंडरूपी द्रव्य है ऐसा कथन अर्पित होने पर वस्तु (मिट्टी, रूपित्व) कथंचित् नित्य है, क्योंकि मिट्टीरूप अर्थ का कभी त्याग या अभाव नहीं होता । अनेक धर्मों में परिणमन वाली वस्तु में धर्मातर की विवक्षा होने पर तथारूपी द्रव्यपने से अनर्पित गौणता होने पर 'मिट्टी का पिंड है' ऐसा अर्पित-प्रधान करके उस पुद्गल द्रव्य में अनित्यपना आ जाता है-कहा जाता है, क्योंकि पर्याय अध्र व होती है । अब यदि इनमें से केवल द्रव्याथिकनय के विषय को ही ग्रहण किया जाता है-माना जाता है तो व्यवहार का लोप होता है, वस्तु मात्र द्रव्यात्मक ही नहीं है । तथा यदि पर्यायार्थिकनय के विषयभूत वस्तु को ही केवल स्वीकार किया जाता है अर्थात् वस्तु मात्र पर्यायरूप है ऐसा माना जाता है तो उतने मात्र से लोक यात्रा सिद्ध नहीं होती, तथा वैसी वस्तु का सद्भाव ही नहीं है। जब एक ही वस्त में द्रव्य और पर्याय ( नित्य और अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् इत्यादि ) दोनों का अस्तित्व होगा तभी लोक यात्रा संभव है । इस तरह वस्तु उभयात्मक प्रसिद्ध