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________________ पंचमोऽध्यायः [ २९३ ग्राह्यत्वात् । न चामूर्तस्य मूर्तिमता प्ररणं युज्यते । अवरुध्यते च शब्दः तृणबिलादिभिः कुल्याजलवत् । न चामूर्तं किंचिन्मूर्तिमताऽवरुध्यमानं दृष्टम् । तथा स्पर्शवद्रव्याभिघाताच्छब्दान्तरानारम्भाभ्यु पगमान्मुख्यावरोधसिद्ध : शब्दस्य मूर्तत्वसिद्धिः । तारकादिवदभिभवादिदर्शनाच्च मूर्तः शब्दोऽवम न्तव्यः । यथा तारकादयो भास्करप्रभाभिभवान्मूर्तिमन्तो दृष्टास्तथा सिंहगजभेर्यादिशब्दै हद्भिः शकुनिरुतादयोऽभिभूयन्ते । तथा कंसादिषु पतिताः शब्दा ध्वन्यन्तरारम्भे हेतवो भवन्ति । गिरिगह्वरादिषु च प्रतिहताः प्रतिशब्दभावमास्कन्दन्ति । अथाऽमूर्तस्यापि विज्ञानस्य मूर्तिमद्भिः सुरादिभिरभिभवो दृश्यते । ततो ज्ञानेन प्रकृतहेतोर्व्यभिचार इत्युच्यते । तदप्ययुक्त-विज्ञानस्यापि क्षायोपश मिकस्य कथञ्चिन्मूर्तत्वाभ्युपगमात् । अन्यथाऽऽकाशवत्तस्याभिभवाघटनात् । मनोऽपि द्वधा-भावमनो समान ] अन्य दिशा में स्थित व्यक्ति द्वारा ग्रहण में आ जाता है । जो अमूर्त है उसकी मूत्तिक द्वारा प्रेरणा होना शक्य नहीं है । शब्द तृण बिल आदि के द्वारा रोका भी जाता है जैसे नहर का जल रोका जाता है । कोई अमूर्तिक पदार्थ ऐसे किसी मूर्तिक से रोका जाता हुआ देखा नहीं गया है । तथा परवादियों ने माना है कि स्पर्श वाले द्रव्य के अभिघात से शब्द दूसरे शब्द को उत्पन्न नहीं करता । इससे तो शब्द में मुख्य रूप अवरोध रुकावट सिद्ध होता है। और रुकावट सिद्ध होने से मूतपना भी सिद्ध हो जाता है । तथा तारे आदि के समान शब्द का अभिभव आदि देखा जाने से उसको मूत्तिक ही मानना चाहिये । जैसे तारे आदि सूर्य की प्रभा से अभिभूत होने से मूर्तिमन्त हैं वैसे सिंह, गज, भेरी आदि के तीव्र शब्दों द्वारा पक्षी आदि के मन्द शब्द अभिभूत होते हैं। तथा कांसे आदि के गिरने से उत्पन्न हुए शब्द दूसरे ध्वनि को उत्पन्न करने में कारण होते हैं। गिरि गुफा आदि स्थानों में टकराये हुए शब्द प्रतिशब्द को प्राप्त होते देखे जाते हैं। इससे शब्द का मूर्तपना भलीभांति सिद्ध होता है । शंका-विज्ञान अमूर्त है फिर भी उसका मूर्तिक मदिरा आदि से अभिभव देखा जाता है, अत: आपने जो कहा कि शब्द अमूर्त होता तो मूर्तिक से अभिभूत नहीं होता इत्यादि, सो यह कथन विज्ञान से व्यभिचरित होता है ? समाधान-यह शंका ठीक नहीं है । हम जैन ने क्षायोपशमिक विज्ञान को कथंचित् मूर्त माना है। यदि विज्ञान सर्वथा अमूर्त होता तो आकाश के समान उसका अभिभव नहीं होता ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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