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________________ २८८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती चेन्न-तस्य पुद्गलपर्यायत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् । स्यान्मतं ते-यथा जलमवगाहते हंस इत्यत्र गमनपरिणतस्य हंसस्य जलावगाहन क्रियायाः कर्तृत्वोपपत्तलहंसयोरनादिः सम्बन्धो नास्ति । तथाकाशं धर्माधर्माववगाहेते इत्यभ्युपगमादनादिसम्बन्धो निवर्तत इति । तन्न युक्तम् । किं कारणम् ? निष्क्रियत्वादनयोरुक्तावगाहस्यौपचारिकत्वात् कुतस्ता पचार इति चेयाप्तिसद्भावादाकाशस्य सर्वगतत्ववत् । यथा गमनाभावे सर्वगतमाकाशमित्युच्यते व्याप्तिसद्भावात्तथा मुख्यावगाहनाभावेऽपि लोकाकाशे सर्वत्र व्याप्तिदर्शनाद्वयवह्रियते धर्माधर्मयोलॊकाकाशेऽवगाह इति । अथ मतमेतत्-युतसिद्धानां लोके आधारावेयभावो दृष्टो यथा कुण्डबदरादीनाम् । आकाशधर्माधर्माः पुनरयुतसिद्धा अप्राप्तिपूर्वकप्राप्तय भावात् । तस्मादेषामाधाराधेयभावो नोपपद्यत इति । तदयुक्तम् । किं कारणम् ? तत्राप्याधाराधेय समाधान नहीं होगी। क्योंकि शब्द आकाश का गुण नहीं है वह तो पुद्गल द्रव्य की पर्याय है, इस बात को आगे कहेंगे । . शंका-हंस जल में अवगाह लेता है अथवा रहता है इसमें गमन में परिणत हंस के जलावगाहन क्रिया का कर्तृत्व बन जाता है, क्योंकि जल और हंस में अनादि का संबंध नहीं है । किन्तु आकाश में धर्म अधर्म अवगाह लेते हैं-रहते हैं, ऐसा यदि स्वीकार करेंगे तो उनका अनादि संबंध खण्डित होगा? समाधान-ऐसा नहीं कहना । धर्म अधर्म द्रव्य निष्क्रिय हैं, उक्त अवगाह को उपचार से माना है । अर्थात् धर्म अधर्म आकाश में रहते हैं ऐसा कहना औपचारिक है। प्रश्न-यह उपचार किस कारण से माना है ? उत्तर-क्योंकि धर्म अधर्म लोक में व्याप्त होकर स्थित हैं, आकाश को जैसे सर्वगत कहते हैं । अर्थात् गमन का अभाव होने पर भी आकाश सर्वगत है ऐसा कहते हैं क्योंकि उसकी सर्वत्र व्याप्ति देखी जाती है, वैसे ही मुख्यतया अवगाहन नहीं होने पर भी लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्ति देखकर व्यवहार से कहते हैं कि धर्म अधर्म का अवगाह लोकाकाश में है । शंका-लोक में युतसिद्ध पदार्थों का आधार आधेय भाव देखा जाता है, जैसे कुण्ड में बेर आदि का आधार आधेय भाव होता है । आकाश, धर्म और अधर्म ये पदार्थ तो अयूत सिद्ध हैं, क्योंकि इनमें अप्राप्ति पूर्वक प्राप्ति नहीं होती। इस कारण से उन आकाशादि का आधार आधेय भाव सुघटित नहीं हो सकता?
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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