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________________ पंचमोऽध्यायः [ २८१ भावापरित्यागात् । किञ्च-द्रव्याथिकपर्यायाथिकनयद्वयवशात्प्रदेशसंहारविसर्पणवत्वस्य सावयवत्वस्य च सद्भावमसद्भावं च प्रत्यनेकान्त इति परोक्तसकलदोषाभावः । अत्र कश्चिदाह-यदि पदार्थानां विशेषलक्षणसद्भावान्नानात्वास्तित्वे स्यातां तर्हि धर्माधर्मयोः किं विशेषकरं तदस्तित्वसाधकं च लक्षणमिति । उपकार इति ब्रू मस्तमेवाह गतिस्थित्युपग्रही धर्माधर्मयोरुपकारः ॥ १७ ॥ गमनं गतिः । स्थानं स्थितिः । जीवपुद्गलद्रव्याणां बाह्याभ्यन्तरहेतुसन्निधाने सति परिणममानानां देशान्तरप्राप्तिहेतुः परिणामो गतिरित्युच्यते । तेषामेव स्वदेशादप्रच्यवनहेतुर्गतिनिवृत्तिरूपा स्थितिरवगन्तव्या। गतिश्च स्थितिश्च गतिस्थिती । उपग्रहो द्रव्याणां शक्तयन्तराविर्भावे कारणभाव इत्यर्थः। तस्य च गतिस्थित्योर्भेदात्तत्सामानाधिकरण्याद्भदसिद्ध द्वित्वनिर्देश उपपद्यते । कथं सामानाधि प्रदेशों में द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा संकोच विस्तार नहीं होता, और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा होता है, इसप्रकार संकोच विस्तार के प्रति अनेकान्त है अतः परवादी द्वारा दिये गये सकल दोष नहीं आते हैं। प्रश्न-सभी पदार्थों के अपने अपने विशेष लक्षणों का सद्भाव होने से वे पदार्थ नाना-पृथक् पृथक् रूपं हैं एवं उनका अस्तित्व सिद्ध है। अर्थात् पदार्थों के विशेष लक्षणों से नानापना और अस्तिपना सिद्ध होता है। यदि ऐसी बात है तो धर्म अधर्म के विशेष लक्षण कौनसे हैं जो कि उनके अस्तित्व को सिद्ध करने वाले हैं ? उत्तर-उनका उपकार ही लक्षण है ऐसा हम कहते हैं अब उसी उपकार को सूत्र द्वारा बताते हैं सूत्रार्थ-धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार क्रमशः गति और स्थिति उपग्रह है। गमन को गति कहते हैं । स्थान को स्थिति कहते हैं । परिणमनशील जीव और पुद्गल द्रव्यों के बाह्य अभ्यन्तर कारण मिलने पर देश से देशान्तर प्राप्ति का हेतु जो परिणाम है वह गति कहलाती है। उन्हीं जीव पुद्गलों के अपने स्थान से अच्युत के हेतु भूत जो गति निवृत्ति-गति का रुकना है वह स्थिति है। गति और स्थिति पदों में द्वन्द्व समास करना । द्रव्यों के एक शक्ति से दूसरी शक्ति के प्रगट होने में जो कारण भाव है वह उपग्रह कहलाता है। उसके गति और स्थिति के भेद से दो भेद हैं, उपग्रह शब्द का गति स्थिति शब्द के साथ सामान्याधिकरण होने से उपग्रह शब्द में द्विवचन निर्देश बनता है ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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