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पंचमोऽध्याय:
[ २५९ नार्थं क्रियते । न विद्यते रूपं येषां तान्यरूपाणि । रूपप्रतिषेधात्तदविनाभाविनां रसादीनामपि प्रतिषेधो वेदितव्यः । तेनारूपाण्यमूर्तानीतिगम्यन्ते । यथा सर्वेषां द्रव्याणां नित्यावस्थितानीत्येतत्साधारणं लक्षणं तथाऽरूपत्वमपि प्राप्तमतस्तदपवादार्थमाह
रूपिणः पुद्गलाः ॥ ५॥ रूपशब्दोऽयं यद्यपि द्रव्यस्वभावाभ्यासश्रुतिमहाभूतचाक्षुषगुणमूर्तिसञकेषु सप्तस्वर्थेषु प्रसिद्ध स्तथाप्यत्र मूर्तिपर्यायस्य ग्रहणम् । तेन योगादूपिणः पुद्गला मूर्तिमन्तः पुद्गला इत्यर्थों भवति । का पुनर्मू तिरिति चेदुच्यते-रूपादिसंस्थानपरिणामों मूर्तिः । रूपादयो रूपरसगन्धस्पर्शाः । परिमण्डल त्रिकोणचतुरश्रादिराकृतिः संस्थानम् । तरूपादिभिः संस्थानैश्च परिणामो मूर्तिरित्याख्यायते। अथवा रूपमित्यनेन चक्षुर्ग्रहणयोग्यो नीलादिगुणो गृह्यते । रूपग्रहणात्तदविनाभाविनां रसादीनामपि ग्रह
अरूप शब्द द्रव्य के स्वतत्त्व का निर्णय करने के लिये आया है । जिनके रूप नहीं होता वे अरूपी हैं। रूप का निषेध करने से उसके अविनाभावी रसादि का भी निषेध हो जाता है । उससे अरूपी अर्थात् अमूर्त हैं ऐसा जाना जाता है ।
नित्य और अवस्थित ये दो लक्षण जैसे सभी द्रव्यों में सामान्य रूप से पाये जाते हैं वैसे अरूपत्व लक्षण भी सबमें प्राप्त होता है, अतः इस विषय में जो अपवाद है उसको सूत्र द्वारा बतलाते हैं
सूत्रार्थ-पुद्गल द्रव्य रूपी होते हैं।
यह रूप शब्द सात अर्थों में प्रसिद्ध है-द्रव्य, स्वभाव, अभ्यास, श्रुति, महाभूत, चाक्षुषगुण और मूर्ति । इनमें से यहां पर मूत्ति अर्थ लिया है। अर्थात् रूप शब्द का अर्थ मूत्ति है । रूप के योग से "रूपिणः" बना अर्थात् पुद्गल द्रव्य मूतिमान होते हैं यह अर्थ है।
प्रश्न-मूत्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर-रूप आदि संस्थान स्वरूप परिणाम को मूत्ति कहते हैं। रूपादि चार हैं-रूप, रस, गंध और स्पर्श । गोल, तिकोण, चौकोण आदि आकार को संस्थान कहते हैं। उन रूपादि और संस्थानों द्वारा जो परिणाम होता है वह मत्ति कहलाती है । अथवा यहां रूप शब्द से चक्षु-इन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने योग्य नीलादि गुण लिये जाते हैं। क्योंकि रूप के ग्रहण से उसके अविनाभावी रसादि का