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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
चशब्दः प्रकृतसमुच्चयार्थ इत्येवं तेन व्यन्तराणां जघन्यस्थितिर्दशवर्षसहस्रारणीत्यवगम्यते । इदानीं व्यन्तराणामिह प्रस्तावे लाघवार्थमुत्कृष्टस्थितिमाह -
परा पत्योपममधिकम् ॥ ३६ ॥
स्थितिरित्यनुवर्तते । तेन व्यन्तराणां पल्योपमं सातिरेकं परा स्थिति रिति निश्चीयते । श्रथ ज्योतिष्काणां का परा स्थितिरित्याह
ज्योतिष्कारणां च ॥ ४० ॥
चशब्दः प्रकृतसमुच्चयार्थ इत्येवं तेन ज्योतिष्कारणां च परा स्थितिः पत्योपमं सातिरेक मित्यभिसम्बध्यते । अथ जघन्या स्थितिर्ज्योतिष्काणां कियती स्यादित्याह -
तदष्टभागोऽपरा ॥ ४१ ॥
च शब्द प्रकृत समुच्चय के लिये है, उससे व्यन्तरों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है ऐसा जाना जाता है ।
इस समय व्यन्तरों का प्रसंग देखकर लाघव के लिये उनकी उत्कृष्ट स्थिति का भी प्रतिपादन करते हैं
सूत्रार्थ - व्यन्तरों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक पल्य प्रमाण है ।
स्थिति का प्रकरण चल ही रहा है, उससे व्यन्तरों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक पल्योपम है ऐसा निश्चय हो जाता 1
ज्योतिष्कों की उत्कृष्ट स्थिति कौनसी है ऐसा पूछने पर सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ – ज्योतिष्कों की भी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक पल्य की है ।
च शब्द प्रकृत का समुच्चय करता है । उससे ज्योतिष्क देवों की भी उत्कृष्ट स्थिति एक पल्य से कुछ अधिक है ऐसा संबंध हो जाता है ।
ज्योतिष्कों की जघन्य स्थिति कितनी है ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैंसूत्रार्थ - ज्योतिष्क की जघन्य स्थिति पल्य के आठवें भाग प्रमाण है ।