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चतुर्थोऽध्यायः
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सौधर्मेशानसनत्कुमार माहेन्द्रेषु चतुर्षु कल्पेषु प्रत्येकमेकैक इंद्र: । मध्ये ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोरेको ब्रह्मनामेन्द्रः । लान्तवकापिष्ठयोरेको लान्तवाख्य इन्द्र: । शुक्रमहाशुक्रयोरेकः शुक्रसंज्ञक इन्द्रः । शतारसहस्रारयोरेक: शताराख्यः । एवं च कल्पवासिनां द्वादशेन्द्रा भवन्ति । ग्रैवेयकादिषु देवाः सर्वेप्यहमिन्द्रत्वात् स्वतन्त्रता इति च बोद्धव्यम् । शेषं तु लोकानुयोगत इत्यलमतिविस्तरेण । उपर्युपरि कैरधिकास्ते वैमानिका इत्याह
स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥ २० ॥
स्वोपात्तस्य देवायुष उदयात्तस्मिन्भवे तेन शरीरेण सह स्थानं स्थितिः । शापानुग्रहशक्ति लक्षणः प्रभावः । सद्व ेद्योदये सतीष्टविषयानुभवनं सुखम् । शरीरवसनाभरणादीनां दीप्तिर्द्युतिः । लेश्योक्तार्था । लेश्याया विशुद्धिः प्रसादो लेश्याविशुद्धि: । इन्द्रिय चावधिश्चेन्द्रियावधी उक्तार्थो । तयोर्विशेषयोर्ज्ञेयपदार्थ इन्द्रियावधिविषयः । स्थितिश्च प्रभावश्च सुखं च द्युतिश्च लेश्याविशुद्धिश्चे
नीचे के सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र नाम के चार कल्पों में प्रत्येक में एक एक इन्द्र है । फिर मध्य में ब्रह्म ब्रह्मोत्तर में एक ब्रह्म नाम का इन्द्र है । लान्तव कापिष्ठ में लान्तव नाम का एक इन्द्र है । शुक्र महाशुक्र में एक शुक्र नाम का इन्द्र है । शतार सहस्रार में एक शतार नाम का इन्द्र है । इसतरह कल्पवासियों के बारह इन्द्र होते हैं । ग्रैवेयक आदि में तो सभी देव स्वतन्त्र अहमिन्द्र हैं ऐसा समझना चाहिये । इन वैमानिक देवों के विषय में शेष बहुतसा कथन लोकानुयोग से जानना चाहिये | अब अधिक नहीं कहते ।
प्रश्न - ऊपर ऊपर के वे वैमानिक देव किनसे अधिक हैं ?
उत्तर - इसीको अग्रिम सूत्र में बताते हैं
सूत्रार्थ - स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या की विशुद्धि, इन्द्रिय विषय और अवधि का विषय इन से वैमानिक देव ऊपर ऊपर अधिक अधिक होते हैं | अपने उपार्जित देवायु कर्म के उदय से उस भव में शरीर के साथ रहना स्थिति कहलाती है । शाप और अनुग्रह की शक्ति को प्रभाव कहते हैं । साता वेदनीय के उदय होने पर इष्ट विषय का अनुभव करना सुख है । शरीर, वस्त्र, आभरण आदि की चमक को द्युति कहते हैं । लेश्या का अर्थ कह चुके हैं । लेश्या की विशुद्धि प्रसन्नता लेश्या विशुद्धि है । इन्द्रिय और अवधि शब्द का अर्थ कह दिया है । उन दोनों के विषय भूत पदार्थ saraft विषय है । स्थिति आदि पदों में द्वन्द्व समास है । “आद्यादिभ्यस्तस्"