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तृतीयोऽध्यायः द्विर्धातकीखण्डे ॥३३॥
भरतादयो द्वौ वारौ मीयन्त इत्यध्याह्रियमाणक्रियाभिद्योतनाथ सङ्ख्याया अभ्यावृत्तौ कृत्वसीति वर्तमाने द्वित्रिचतुर्थ्यः सुजित्यनेन सुच्क्रियते । यथा द्विस्तावानयं प्रासादो मीयत इति । जम्बूद्वीपे यत्र यथा जम्बूवृक्षसमूह उक्तस्तत्र तथा धातकोखण्डद्वीपे धातकीखण्डोऽस्ति । ततो धातकीखण्डेनोपलक्षितत्वाद्वीपोऽपि धातकीखण्ड इत्यनादिरूढः । स च सामर्थ्यादागमे द्वाभ्यामिष्वाकाराभ्यां दक्षिणोत्तरायताभ्यां योजनसहस्रविष्कम्भचतुर्योजनशतोत्सेधाभ्यां लवणोदकालोदवेदिकास्पशिभ्यां पर्वताभ्यां द्विधा विभक्तः पूर्वोऽपरश्चेति । तत्र पूर्वे परे च बहुमध्यदेशभाविनौ मेरू स्थितौ । तदुभयतो भरतौ हिमवन्तौ शेषौ च वर्षवर्षधरौ द्विसङ्खचौ चक्राकारसंस्थानौ । जम्बूद्वीपभरतादिद्विगुणविस्तारौ भवतोऽन्यत्र मेरुभ्यां तयोर्जम्बूद्वीपमन्दरादल्पविष्कम्भोत्सेधत्वात् । चतुर्दशाधिकषट्षष्टियोजनशतानि,
सत्रार्थ-धातकी खण्ड में भरतादिक दूने हैं । भरतादिक दो बार मापते हैं इसप्रकार 'मीयन्ते' क्रिया का अध्याहार करना, इसकी प्रगटता के लिये "संख्याया अभ्यावृत्तौ कृत्वसि" इस सूत्र से कृत्वस् प्रत्यय का प्रसंग था किन्तु इसको न करके द्वित्रिचतुर्य : सुच" इस सूत्र से सुच् प्रत्यय किया गया है । जैसे यह प्रासाद दुगुणा नापा जाता है, द्विस्तावानयं प्रासादः" इसमें सुच् होने से संख्या की अभ्यावृत्ति है। वैसे "द्विर्धातकी खण्डे" में संख्या की अभ्यावृत्ति है । इसीको बताते हैं-जहां जम्बुद्वीप में जैसे जम्बू वृक्ष समूह कहा है वैसे वहां धातकी खण्ड द्वीप में धातकी खण्ड है [ धातकी वृक्षों का समूह है ] उस धातकी खण्ड से [ यहां खण्ड शब्द का अर्थ वन है ] उपलक्षित होने से द्वीप भी धातकी खण्ड नाम से अनादि रूढ़ है। आगम के सामर्थ्यानुसार इसका विभाग करने वाले दो इष्वाकार पर्वत हैं, ये पर्वत दक्षिण उत्तर लंबे, एक हजार योजन चौड़े, चार सौ योजन ऊंचे हैं, तथा अपने सिरे से लवणोदधि और कालोदधि की वेदिका का स्पर्श करने वाले हैं। इन दो पर्वतों के कारण धातकी खण्ड पूर्व और पश्चिम भाग वाला हो गया है। उन पूर्व और पश्चिम भाग के बहमध्य में दो मेरु हैं, उन मेरुओं के दोनों तरफ दो भरत, दो हिमवान तथा शेष भी क्षेत्र पर्वत दो दो संख्या वाले हैं । इनका आकार चक्राकार है । ये क्षेत्रादि जम्बद्वीप के क्षेत्रादि की अपेक्षा दुगुण विस्तार वाले हैं किन्तु मेरु दुगुणे विस्तार वाले नहीं हैं, क्योंकि जम्बूद्वीप के मेरु से ये दो मेरु अल्प विष्कम्भ तथा उत्सेध युक्त हैं। धातकी खण्ड में भरत का अभ्यन्तर विष्कंभ छयासठ सौ चौदह योजन और एक योजन के