________________
११८ ]
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती एव वेदितव्याः । सामर्थ्यलब्धत्रिलिङ्गत्वे देवानां नपुसकलिङ्गप्रतिषेधार्थमाह
न देवाः ॥ ५१ ॥ देवा नपुसकानि न भवन्ति । ततस्ते स्त्रियः पुमांसश्चेत्यर्थादवगम्यते । अथान्ये यत्लिङ्गा इत्याह
शेषास्त्रिवेदाः ।। ५२ ॥ औपपादिकेभ्यः सम्मूछेनजेभ्यश्चान्ये संसारिणः शेषास्ते पुनर्गर्भजा एव । वेद्यन्त इति वेदा रूढिवशात् स्त्रीपुनपुसकलिङ्गान्युच्यन्ते । त्रयो वेदा येषां ते त्रिवेदाः। शेषाणां प्राणिनां त्रयो वेदा भवन्तीति निश्चयः कर्तव्यः । के पुनः संसारिणोऽनपवायुषः, के चापवायुष इत्याह
प्रौपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसङ्खये यवर्षायुषोऽनपवायुषः ।। ५३ ॥
पुरुष होता है, वे नपुंसक होते हैं। नारकी और सम्मर्छन जन्मवाले सर्व नपुंसक लिंगधारी ही होते हैं । सामर्थ्य से अन्य जीवों के तीन लिंगपने का प्रसंग आने पर देवों में नपुंसक लिंग का निषेध करते हैं
सत्रार्थ-देव नपुसक लिंगवाले नहीं होते । देव नपुसक नहीं होते । उनके तो स्त्रीलिंग और पुल्लिग ये दो लिंग ही होते हैं । ऐसा अर्थापत्ति से ज्ञात होता है।
अन्य जीवों के लिंग बतलाते हैं
सूत्रार्थ-शेष जीवों के तीनों लिंग होते हैं। उपपाद जन्मवाले और सम्मर्छन जन्मवाले जीवों को छोड़कर गर्भ जन्मवाले ही शेष बचते हैं। जिनका वेदन किया जाय वे वेद हैं यह रूढि परक अर्थ है । स्त्रीलिंग, पुल्लिग और नपुसक लिंग ये तीन वेद हैं । "त्रिवेदा" पद में बहुव्रीहि समास हुआ है । तात्पर्य यह है कि शेष प्राणियों के तीनों वेद होते हैं।
प्रश्न-कौनसे संसारी जीव अनपवर्त्य आयुवाले हैं और कौन से अपवर्त्य आयुवाले हैं ?
उत्तर-इसीको कहते हैं।
सूत्रार्थ-उपपाद जन्मवाले, चरमोत्तम देहवाले और असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीव अनपवर्त्य आयु युक्त होते हैं । उपपाद जन्मवाले देव नारकी होते हैं । अन्त्य को चरम और उत्तम को उत्कृष्ट कहते हैं । देह का अर्थ शरीर है । चरम उत्तम है देह