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द्वितीयोऽध्यायः
[ ११७ पदार्थनिर्धारणं संयमपरिपालनं च प्रयोजनविशेषः कथ्यते । तदर्थमाह्रियते निवर्त्यत इत्याहारकम् । अत एव तदर्थं तन्निवर्तयन्संयतः प्रमत्तो भवतीति प्रमत्तसंक्तस्येत्युक्तम् । प्रमाद्यति स्म प्रमत्तः । संयच्छति स्म संयतः । प्रमत्तश्चासौ संयतश्च प्रमत्तसंयतस्तस्य प्रमत्तसंयतस्य । तस्यैवाहारकं नान्यस्येतीष्टतोऽवधारणार्थमेवकारोपादानम् । तत्रौदारिकादिनिवृत्तिर्नास्तीति सिद्धम् । संप्रति संसारिणां लिङ्गनियमार्थमाह
नारकसम्मूछिनो नपुंसकानि ।। ५० ॥ नरकेषु भवा नारका वक्ष्यमाणाः । सम्मूर्छन सम्मूर्छः । स विद्यते येषां ते सम्मछिनो व्याख्यातलक्षणाः नारकाश्च सम्मूछिनश्च नारकसम्मूछिनः । नोकषायभेदस्य नपुसकवेदस्याऽशुभनाम्नश्च विपाकान्न स्त्रियो न पुमांस इति नपुसकानि भवन्ति । नारकाः सम्मूर्छनजन्मानश्च सर्वे नपुंसकलिङ्गा
जिसके व्याघात नहीं होता उसे अव्याघाती कहते हैं । आहारक शरीर का अन्य द्वारा व्याघात नहीं होता तथा स्वयं आहारक शरीर भी अन्य का घात नहीं करता है। सूत्र में च शब्द आया है उससे उस आहारक शरीर की निवृत्ति-रचना तथा प्रयोजन विशेष का ग्रहण हो जाता है । अपनी ऋद्धि विशेष का सद्भाव ज्ञात करने के लिये सूक्ष्म पदार्थ के निर्णय के लिये या संयम परिपालन के लिये यह शरीर बनता है, यह इसका प्रयोजन है। उपर्युक्त प्रयोजन के लिये जो रचा जाता है वह आहारक है। इसको रचता हुआ मुनि प्रमत्त होता है अतः कहा है कि प्रमत्तसंयत के ही आहारक होता है । प्रमाद युक्त प्रमत्त है संयमी संयत है । प्रमत्तसंयत का कर्मधारय समास है । उसीके आहारक होता है अन्य के नहीं होता, इसप्रकार का इष्ट अवधारण करने के लिये "एव" शब्द का ग्रहण किया है। ऐसा अवधारण नहीं करना कि प्रमत्तसंयत के आहारक ही होता है, इसतरह अवधारण करे तो उक्त मुनि के औदारिकादि शरीर के अभाव का प्रसंग आता है । अतः आहारक यदि होता है तो प्रमत्तसंयत के ही होता है ऐसा अर्थ करना ।
अब इस समय संसारी जीवों के लिंग का नियम बतलाते हैं
सूत्रार्थ-नारकी और सम्मूछिन जीव नपुसक होते हैं । नरक में होनेवाले नारकी हैं इनका कथन आगे करेंगे । सम्मूर्छनपना जिनके होता है वे सम्मछिन कहलाते हैं । “नारक सम्मूछिनो" पद में द्वन्द्व समास है । नोकषाय के भेद स्वरूप नपुंसक वेद के उदय से तथा अशुभ नाम कर्म के उदय से जो न स्त्री होता है और न