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द्वितीयोऽध्यायः
[ ११५ औपपादिकं वैक्रियिकम् ।। ४६ ।। उपपादो व्याख्यातलक्षणस्तत्र भवमोपपादिकम् । यदुपपादजन्मजं शरीरं तद्वैक्रियिकं वेदितव्यम् । अनौपपादिकस्यापि कस्यचिद्वैक्रियिकत्वप्रतिपादनार्थमाह
लन्धिप्रत्ययं च ॥ ४७ ॥ तपोविशेषादिर्लब्धिः प्रत्ययः कारणं । लब्धिः प्रत्ययो यस्य तल्लब्धिप्रत्ययम् । चशब्दो वैक्रियिकाभिसम्बन्धार्थः । तेन वैक्रियिकं शरीरं लब्धिप्रत्ययं च भवतीत्यभिसम्बध्यते । तैजसस्यापि लब्धिप्रत्ययत्वप्रतिपादनार्थमाह
तेजसमपि ॥ ४८ ॥ अपिशब्देन लब्धिप्रत्ययमभिसम्बध्यते । तेन तैजसमपि लब्धिप्रत्ययं भवतीति ज्ञायते । तत्र यदनुग्रहोपघातनिमित्तं निःसरणाऽनिःसरणात्मकं तपोतिशयद्धिसम्पन्नस्य यतेर्भवति तद्विशिष्टरूपं
सत्रार्थ-वैक्रियिक शरीर उपपाद जन्म वाले के होता है। उपपाद का लक्षण कह चुके हैं उस उपपाद में जो हो वह औपपादिक है । जो उपपाद जन्मज शरीर है वह वैक्रियिक जानना चाहिये ।
जिनका उपपाद जन्म नहीं है ऐसे अनौपपादिक जीवों में भी किसी किसी के वैक्रियिक शरीर होता है ऐसा प्रतिपादन करते हैं
सत्रार्थ-लब्धि के कारण भी वैक्रियिक शरीर होता है, तप विशेष आदि को लब्धि कहते हैं, प्रत्यय का अर्थ कारण है, लब्धि है कारण जिसका वह लब्धि प्रत्यय कहलाता है। सूत्र में च शब्द वैक्रियिक के संबंध के लिये आया है। उससे वैक्रियिक शरीर लब्धि के निमित्त से भी होता है ऐसा सिद्ध होता है।
तैजस शरीर भी लब्धि प्रत्यय है ऐसा बतलाते हैं
सूत्रार्थ-तैजस शरीर भी लब्धि प्रत्यय होता है । सूत्र में अपि शब्द है, वह लब्धि प्रत्यय का अध्याहार करता है, उससे यह अर्थ सिद्ध होता है कि तेजस शरीर भी लब्धि के निमित्त से होता है । जो शरीर अनुग्रह और उपघात का कारण है निःसरणात्मक और अनिःसरणात्मक ऐसे दो रूप है अतिशय तप के ऋद्धि से सम्पन्न मुनीश्वर के होता है वह विशिष्ट तैजस शरीर है । तथा जो सुख दु:ख के अनुभबन रूप कार्य की उत्पत्ति में कार्मण शरीर का सहकारि है ऐसा तैजस शरीर तो सर्व ही संसारी जीवों के साधारणपने से होता है ।